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खण्ड-३, गाथा-१२
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___ न च संवृतेरेवोत्पाद-विनाशाभ्युपगमः, क्षणस्थितिव्यतिरेकेणापरस्य परमार्थसल्लक्षणलक्ष्यस्याभावात् क्षणस्थायिन एव स्वलक्षणताभ्युपगमात् क्षणव्यवस्थितयश्च ग्राह्य-ग्राहकसंवित्त्यादयोऽध्यक्षत्वेनेष्यन्ते तदस्वलक्षणत्वे कोऽपरः स्वलक्षणार्थो भवेत् ? तदाकारविविक्तस्यापरस्यात्यन्तानुपलम्भतः प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः। न चानंशमसाधारणं स्वलक्षणं सांशमिव विपर्यासात् प्रतिभातीति वक्तव्यम्, अकार्यकारणरूपं कार्यकारणरूपमिव सर्वविकल्पातीतं सविकल्पमिव पुरुषतत्त्वं प्रतिभातीत्येवं पराभिधानस्यापि सम्भवादित्युक्तत्वात्। 5 ततश्च न कस्यचिद् उत्पादः क्षयो वा भवेत्। न चोत्पाद-विनाशयोः भ्रान्तिकल्पनायां किञ्चिदप्यभ्रान्तं सिध्येत्, निरंशक्षणक्षयाद्यवभासाभावात् स्वसंवित्तिसद्भावमात्रसिद्धेरप्यभावप्रसंगात्। क्षणक्षयाद्यवभासस्यासत्यत्वे सैवाऽनेकान्तसिद्धिः समापतति । अथ नेयमसती संवित्तिः कुतश्चिनिमित्तात् सतीव प्रतिभाति, किन्तु सत्येव प्रतिभातीत्यस्याः स्वभावसिद्धिः, नन्वेवं न सर्वथापि भ्रमः सिध्येत् किन्तु भ्रान्ताऽभ्रान्तकविज्ञानाभ्युपगमादनेकान्तवाद एव पुनरपि सिद्धिमायातः।
यदपि 'कार्य-कारणयोरभेदाभावः सिध्यति भेदात् अकार्यकारणवत्' इति तदपि ग्राह्य-ग्राहक• अनेकान्तरूप से पारमार्थिक मानने पर, एकान्त निरस्त हो जाने से प्रमाणप्रयुक्त दर्शन सुघट बन जाता है - तो उस का अपलाप कैसे हो सकेगा ?
बौद्धवादी ऐसा मत कहें कि - ‘उत्पाद-विनाश तो कल्पनाकल्पित ही हैं' – वास्तव तो क्षणिकस्थिति ही है - क्षणस्थिति से अतिरिक्त ‘परमार्थसत्'रूप लक्षण के लक्ष्यभूत कोइ तत्त्व नहीं है, अतः क्षणस्थायी 15 को ही स्वलक्षण माना जाता है। (अनेक) क्षणावस्थितिवाले ग्राह्य-ग्राहकसंवेदनादि प्रत्यक्षतया दिखते हैं - यदि उन्हें स्वलक्षणरूप नहीं मानेंगे तो और कौन है जिस को स्वलक्षण-अर्थरूप माना जाय ? (स्थूलाकार रहित अथवा) ग्राह्यादिआकारशून्य कोई अन्य तत्त्व उपलब्धिगोचर न होने से उस का प्रत्यक्षत्व सयुक्तिक नहीं हो सकता। ऐसा मत कहना कि 'स्वलक्षण तो निरंश एवं असाधारण है किन्तु वासनाकृत विपर्यास से वह सावयव हो ऐसा दिखता है' - ऐसे तो अन्य वादी (सांख्य) भी कहेगा कि पुरुषतत्त्व कार्य-कारणरूप 20 न होने पर भी कार्य-कारण हो ऐसा, एवं सर्वविकल्पशून्य होने पर भी सविकल्प हो ऐसा भासता है - पहले यह कह दिया है। सिर्फ क्षणस्थिति मानने पर तो न किसी का उत्पाद होगा, न नाश ।
यदि उत्पाद-विनाश के भान को भ्रान्ति कहेंगे तब तो प्रत्येक चीज के ज्ञान के लिये समानरूप से यह बात लागु होने से फिर सारे जगत् में अभ्रान्त कुछ बचेगा ही नहीं। निरंशक्षणक्षयादि अवभास भी भ्रान्त ठहरेगा, तो सिर्फ स्वसंवेदनमात्र की सत्ता भी संकटग्रस्त हो जायेगी - उस का भी अभाव 25 प्रसक्त होगा। क्षणक्षयादि अवभास को असत्य मानेंगे या सत्य ? यदि असत्य मानेंगे तो स्वसंवेदन में सत्यत्व किन्तु क्षणक्षयसंवेदन में असत्यत्व – इस प्रकार अनेकान्तमत की सिद्धि प्रसक्त होगी। यदि कहें कि यह क्षणक्षयादि प्रतीति है असत्य किन्तु, किसी निमित्त से सत्य भासती है ऐसा नहीं है, वह स्वभाव से वास्तव में ही सत्य भासती है - तो कहीं भी भ्रम सिद्ध नहीं होगा - तथा पूर्वोक्त प्रकार से एक ही विज्ञान को भ्रान्त एवं अभ्रान्त मान लेने पर तो अनेकान्तवाद की ही पुनः सिद्धि प्रसक्त होगी। 30
[ स्वभावभेद ही आखरी भेदक होता है 1 यह जो कहा जाता है - अकार्य और अकारण में जैसे भेद होने से अभेदविरह होता है वैसे
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