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खण्ड-३, गाथा-१५ प्रत्ययस्य नयात्मकत्वानुपपत्तेः। न च सम्यक्त्वं न तयोः प्रतिपूर्ण प्रतिषेधद्वयेन प्रकृतार्थावगतः। अशेषं हि प्रामाण्यं सापेक्षं गृह्यमाणयोरनयोरेवंविषययोर्व्यवस्थितं येन द्वावपि एकान्तरूपतया व्यवस्थितौ मिथ्यात्वनिबन्धनं तत्परित्यागेनाऽन्वय-व्यतिरेको विशेषेण परस्परात्यागरूपेण भज्यमानौ गृह्यमाणावनेकान्तो भवतीति सम्यक्त्वहेतुत्वमेतयोरिति ।।१४।।।
एवं सापेक्षद्वयग्राहिणो नयत्वानुपपत्तेस्तृतीयनयाभावः प्रदर्शितः, निरपेक्षग्राहिणां तु मिथ्यात्वं दर्शयितु 5 माह(मूलम्) जह एए तह अण्णे पत्तेयं दुण्णया गया सव्वे ।
हंदि हु मूलणयाणं पण्णवणे वावडा ते वि।।१५।। __ यथा एतौ निरपेक्षद्वयग्राहिणौ मूलनयौ मिथ्यादृष्टी तथा उभयवादरूपेण व्यवस्थितानामपि परस्परनिरपेक्षत्वस्य मिथ्यात्वनिबन्धनस्य तुल्यत्वात् प्रत्येकम् इतरानपेक्षा अन्येऽपि दुर्नयाः। न च प्रकृत- 10 नयद्वयव्यतिरिक्तनयान्तरारब्धत्वादुभयवादस्य नयानामपि वैचित्र्यादन्यत्रारोपयितुमशक्यत्वात् तद्रूपस्य अये सम्यक्प्रत्यया भविष्यन्तीति वक्तव्यम्; यत: हंदि इत्येवं गृह्यतां ‘हुः' इति हेतौ मूलनयद्वयपरिच्छिन्नवस्तुन्येव एक बोध होगा वह पूर्ण (न कि अंश) ग्राही होने से नयरूप हो नहीं सकता। दूसरी ओर वे दोनों नय यदि परस्पर सापेक्ष मिल कर उभयग्राही बनेंगे तो उन में परिपूर्ण सम्यक्त्व नहीं होगा ऐसा नहीं है। यहाँ दो निषेधों से प्रकृत अर्थ बोधित होता है कि 'परिपूर्ण सम्यक्त्व होगा'। भावार्थ है 15 कि सापेक्षरूप से प्रवर्त्तमान दोनो नयों में एवं सापेक्ष दोनों विषयों में अशेष प्रामाण्य अक्षुण्ण विद्यमान है। अतः फलित यह हुआ कि एकान्तआग्रहिता से युक्त दोनों नय मिथ्यात्वमूलक हैं। एकान्ताग्रह से मुक्त, विभज्यमान यानी विशेष (मिलित) स्वरूप से अन्योन्य की उपेक्षा न करते हुए प्रवर्त्तमान दोनों ही अनेकान्त विभूषित बन जाते हैं, अत एव उन में सम्यक्त्व की हेतुता अक्षुण्ण रहेगी।।१४ ।।
[ स्वतन्त्र प्रत्येक सर्व नय दुर्नय हैं ] अव० :- उस प्रकार से सापेक्ष उभयग्राहि एक बोध में नयत्व दुर्घट होने से तीसरे नय का अभाव दर्शाया। अब परस्परनिरपेक्ष सामान्यादि वस्तुग्राहि बोध (या प्रतिपादन) में भी मिथ्यात्व है यह दिखाते हैं -
गाथार्थ :- जैसे ये (दो) हैं उसी तरह अन्य सभी प्रत्येक (= निरपेक्ष) नय (मिथ्यादृष्टि) हैं, क्योंकि वे भी मूल नयों के प्रज्ञापन में ही मस्त हैं ऐसा समझ के रखो ।।१५।।
25 व्याख्यार्थ :- जैसे परस्परनिरपेक्ष सामान्य-विशेष ग्राही मूल नय मिथ्यादृष्टि हैं वैसे ही पृथक् पृथक उभयनिरूपकरूप से प्रवर्त्तमान होने पर भी प्रत्येक (यानी इतरनिरपेक्ष) अन्य नय भी दुर्नय ही हैं क्योंकि मिथ्यात्वआपादक परस्परनिरपेक्षत्व उन में भी तुल्य ही है।
शंका :- उभयवाद (= उभय निरूपण) तो मूलनययुगल से अत्यन्त विभिन्न नयविशेषमूलक होने से, और नय का कोई संकुचित स्वरूप नहीं होता किन्तु विचित्र स्वभाव होता है, इस लिये उभय 30 वाद में मिथ्यात्व आरोपण शक्य नहीं है अतः अन्य नय बोध भी सम्यक्प्रतीतिरूप हो सकते हैं।
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