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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
२७६
अनुपपद्यमान संसारदुःखौघविषयत्वात् मिथ्याज्ञानं वन्ध्यासुतजनितबाधागोचरभीतिविषयपर्यालोचनवत् । मिथ्याज्ञानपूर्विका च प्रवृत्तिर्विसंवादिन्येव । बन्धेन विना संसारनिवृत्ति - तत्सुखप्रार्थना च न भवत्येव तथा मोक्षश्चानुपपन्नः निरपराधपुरुषवत् अबद्धस्य मोक्षाऽसम्भवात् । बन्धाभावश्च योग- कषाययोः प्रकृति - स्थिति-अनुभाग-प्रदेशात्मकबन्धहेत्वोरेकान्तपक्षे विरुद्धत्वात् । न चैकरूपत्वाद् ब्रह्मणो बन्धाद्यभावप्रेरणा न 5 दोषाय, चेतनाऽचेतनादिभेदरूपतया जगतः प्रतिपत्तेः । न च भेदप्रतिपत्तिर्मिथ्या अविद्यानिर्मितत्वादिति वक्तव्यम्; अविद्यायाः प्रतिपत्तिजननविरोधात्, अविरोधे विद्यारूपताप्राप्तेर्द्वतप्राप्तिरिति । प्रतिविहितश्चाऽद्वैतवाद इति न पुनः प्रतन्यते । । २० ।।
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तदेवमेकान्ताभ्युपगमे बन्धहेत्वाद्यनुपपत्तेरैहिकाऽऽमुष्मिकसर्वव्यवहारविलोपः इत्येकान्तव्यवस्थापकाः सर्वेऽपि मिथ्यादृष्टयो नयाः अन्योन्यविषयाऽपरित्यागवृत्तयस्तु त एव सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्त इत्युपसंहरन्नाह(मूलम् - ) तम्हा सव्वे वि गया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोष्णणिस्सिआ ण हवंति सम्मत्तसब्भावा ।। २१ ।।
यस्मादेकान्तनित्याऽनित्यवस्त्वभ्युपगमो बन्धादिकारणयोगकषायाभ्युपगमबाधितः तदभ्युपगमोऽपि नित्याद्येकान्ताभ्युपगमप्रतिहतः इत्येवंभूतपूर्वोत्तराभ्युपगमस्वरूपाः तस्मात् मिथ्यादृष्टयः सर्वेऽपि नयाः तथा, बन्ध वास्तव न होने पर संसार निवृत्तिरूप मुक्तिसुख की याचना भी नहीं करनी चाहिये । 15 बन्ध के बिना मोक्ष भी निर्दोष पुरुष की तरह असंगत है। जो बद्ध नहीं उस का मोक्ष कैसा ? प्रकृति-स्थिति-रस-प्रदेश चतुर्विध बन्ध के हेतुभूत योग- कषायद्वन्द्व एकान्तवाद में विरुद्धतत्त्व है। यदि ब्रह्माद्वैतवादी कहें कि हमारे पक्ष में बन्धादि के अभाव का आपादन दूषण नहीं भूषण है तो यह गलत है, क्योंकि जड़-चेतन के भेद से द्वैत जगत् का अनुभव होता है । 'अविद्याप्रेरित होने से भेदानुभव मिथ्या है' ऐसा नहीं कहना क्योंकि अविद्या होकर अनुभव का उत्पादन करे 20 इस में विरोध है, यदि विरोध नहीं है तब तो उत्पादक होने से वह विद्यारूप सिद्ध होने से विद्या एवं ब्रह्म ऐसे द्वैत का प्रवेश होगा। पहले ( २८५ - ६ ) पूर्वग्रन्थ में अद्वैतवाद का निरसन किया जा चुका है अतः यहाँ पुनः विस्तार नहीं करते ।। २० ।।
[ नय मिथ्यादृष्टि नय सम्यग्दृष्टि कब कैसे ? ]
अव० :- उक्त प्रकार से एकान्ताग्रह रखने पर बन्धहेतु आदि की संगति नहीं होती अतः इहलौकिक 25 पारलौकिक सर्व व्यवहारों का लोप प्रसङ्ग आता है; अतः एकान्तस्थापक सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं । वे ही नय अन्योन्यविषय की उपेक्षा करने का साहस न करे तो सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं इसी भावार्थ का उपसंहार करते हैं गाथार्थ :
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अत एव अपने पक्ष में आग्रहबद्ध सकल नय मिथ्यादृष्टि हैं । और अन्योन्यनिश्रित हो कर सम्यक्त्व की सत्ता से युक्त बन जाते हैं । । २१ ।।
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व्याख्यार्थ :चूँकि एकान्तनित्य या एकान्त अनित्य वस्तु की मान्यता बन्धादिकारणीभूत योग और कषायों की मान्यता से विरुद्ध है; बन्धादिकारण योग-कषायादि का स्वीकार भी एकान्त नित्य या अनित्य आत्मतत्त्व स्वीकार से विरुद्ध है, इस प्रकार के पूर्व - उत्तर मान्यतात्मक सभी नय मिथ्यादृष्टि
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