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खण्ड-३, गाथा-१९
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दुःखसम्प्रयोगो न युज्यत इति सम्बन्धः । तथा पक्षद्वयेऽपि सुखार्थम् दुःखवियोगार्थं च विशिष्टं कल्पनं = यतनम् - 'कल्पतेः' अत्र यतनार्थत्वात् - अयुक्तम् = अघटमानकम् सुख-दुःखोपादान-त्यागार्थप्रयत्नस्याप्ययुक्तत्वमुक्तन्यायात्। 'संसरति निरुपभोगं भावैरधिवासितं लिङ्गम्।' [सांङ्ख्य का० ४०] इति साङ्ख्यमतमपि निरस्तम् न्यायस्य सर्वेकान्तसाधारणत्वात् ।।१८।। ___ एकान्तपक्षे आत्मसुख-दुःखोपभोग-निवर्त्तकशरीरसम्बन्धहेत्वदृष्टोत्पादकनिमित्तानामप्यसम्भवं दर्शय- 5 नाह
(मूलम्-) कम्मं जोगनिमित्तं बज्झइ बन्ध-ट्ठिई कसायवसा।
___ अपरिणउच्छिण्णेसु य बंधट्ठिइकारणं णत्थि ।।१९।। कर्म = अदृष्टम्, योगनिमित्तं मनो-वाक्-कायव्यापारनिमित्तम् बध्यते = आदीयते, बध्यत इति बन्धः = अदृष्टमेव तस्य स्थितिः = कालान्तरफलदातृत्वेन आत्मन्यवस्थानम् सा कषायवशात् = 10 क्रोधादिसामर्थ्यात् एतदुभयमपि एकान्तवाद्यभ्युपगते आत्मचैतन्यलक्षणे भाव अपरिणते उत्सन्ने च बन्धस्थितिकारणं नास्ति । न ह्यपरिणामिनि अत्यन्तानाधेयातिशये आत्मनि क्रोधादयः सम्भवन्ति । नाप्येकान्तोत्सन्ने का प्रयत्न व्यर्थ जायेगा, एवं क्षणिकपक्ष में प्रयत्न करने पर भी स्वयं को कोई लाभ होने वाला नहीं - यह युक्ति है। ___सांख्यकारिका ग्रन्थ में जो कहा है कि '(अहंकारादि) भावों से अधिवासित लिंग (प्रधानतत्त्व), विना 15 उपभोग ही संसरण (= परिभ्रमण) करता है' - यह सांख्यमत भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि एकान्त कूटस्थ आत्मा मानने पर सर्वत्र ‘सुख-दुःख प्राप्ति-परिहारप्रयत्नव्यर्थता'रूप न्याय यहाँ लब्धप्रसर है।।१८।।
[ एकान्तवाद में कर्मसिद्धान्त की अनुपपत्ति ] ___ अव० :- एकान्तवाद पक्ष में आत्मा को सुख-दुःख उपभोग कराने वाले देहसम्बन्ध की अनुपपत्ति की तरह देहसम्बन्ध के हेतुभूत अदृष्ट यानी कर्म एवं उस के उत्पादक निमित्त कषायादि की भी 20 अनुपपत्ति को गाथा १९ में दिखाते हैं -
गाथार्थ :- (मन आदि) योग के निमित्त से कर्म बँधता है। बन्ध की स्थिति कषायाधीन होती है। अपरिणाम एवं उच्छेद (पक्ष) होने पर बन्ध एवं उस की स्थिति का कारण नहीं रहेगा।।१९।।
व्याख्यार्थ :- 'कर्म' शब्द के क्रियादि अनेक अर्थ है, यहाँ नैयायिकमत प्रसिद्ध अदृष्ट अर्थ लेना है। उस का बन्ध होता है मन-वचन-काया के स्पन्दनरूप योग के निमित्त से। जीव को बाँधनेवाला 25 बन्ध कहा जाता है, मतलब कि कर्म। उस की स्थिति का मतलब है कालान्तर में फलदान करने तक आत्मा में बैठे रहना। बन्धस्थिति क्रोधादिबलाधीन होती है। एकान्तवादी स्वीकृत नित्य (अपरिणामी) या क्षणविनाशी आत्मचेतनारूप पदार्थ में उभय यानी बन्ध और स्थिति का एक भी कारण (योग या कषाय) घट नहीं सकता।
जिस में किसी संस्कार (= अतिशय) का सिंचन शक्य नहीं ऐसा अपरिणामी आत्मा मानने पर 30 उस में क्रोधादि कषायों का आवेश-उपशम घटेगा नहीं। एकान्त क्षणभंगुरवाद में पूर्वापर अनुसन्धान नहीं
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