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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ सम्भवति, नित्यस्य पूर्वापरशरीराभ्यां वियोग-योगानुपपत्तेः। निरन्वयक्षणध्वंसिनोऽप्येकाधिकरणत्वाऽसम्भवाद् न तल्लक्षणः संसारः। न चामूर्तस्यात्मनोऽसर्वगतैकमनोऽभिष्वक्तशरीरेण विशिष्टवियोग-योगी संसारः, मनसोऽकर्तृत्वेन शरीरसम्बन्धस्यानुपपत्तेः । यो ह्यदृष्टस्य विधाता स तन्निवर्तितशरीरेण सह सम्बध्यते,
न चैवं मनः । न च मनसः शरीरसम्बन्धेऽपि तत्कृतसुख-दुःखोपभोक्तृत्वम् आत्मनि तस्याभ्युपगमात् तदर्थं 5 च शरीरसम्बन्धोऽभ्युपगम्यते इति तत्सम्बन्धपरिकल्पनं मनसो व्यर्थम् मनसि सुख-दुःखोपभोक्तृत्वाभ्युपगमे वा आत्मकल्पनावैयर्थ्यम् मनस आत्मत्वसिद्धेः ।।१७।। तथा
(मूलम्-) सुह-दुक्खसम्पओगो ण जुज्जए णिच्चवायपक्खम्मि।
___एगंतुच्छेयंमि य सुह-दुक्खवियप्पणमजुत्तं ।।१८।। सुखेन = अबाधास्वरूपेण, दुःखेन = बाधनालक्षणेन, सम्प्रयोगः = सम्बन्धः न युज्यते = न 10 घटते आत्मनो नित्यवादपक्षे = द्रव्यास्तिकाभ्युपगमे, सुखस्वभावस्य अविचलितरूपत्वात् सदा सुखरूपतैव
आत्मनः न दुःखसम्प्रयोगः, दुःखस्वभावत्वे तद्रूपतैव तत्त्वादेव। एकान्तोच्छेदे च पर्यायास्तिकपक्षे सुखमें पूर्वदेहधारी और उत्तरदेहधारी की एकाधिकरणता नहीं घटेगी। मतलब, एक ही व्यक्ति में भवद्वय का त्याग-ग्रहण नहीं घटेगा। यानी संसार नहीं घटेगा। उपरांत, यदि कहें कि - अमूर्त आत्मा को
अव्यापि एक मन संसक्त देह के साथ विशिष्ट प्रकार से संयोग-वियोग - यही संसार है - तो यह 15 भी असंगत है क्योंकि मन स्वयं कर्ता न होने से उस का शरीर के साथ संयोग घटेगा नहीं। शरीर
के साथ सम्बन्ध उसी का होगा जो शरीरनिमित्त अदृष्ट का निर्माता होगा। मन अदृष्टनिर्माता नहीं। तथा मन का देहसम्बन्ध मान ले तो भी वह देह जनित सुख-दुःख का उपभोग कर नहीं सकता क्योंकि उपभोग तो आत्मा में ही होता है, उपभोग के लिये ही देहसम्बन्ध की जरूर पडती है। अतः
मन में देहसम्बन्ध की कल्पना निरर्थक है। अगर मन को ही सुख दुःख का उपभोक्ता मान लेंगे 20 तो मनोभिन्न आत्मा की कल्पना व्यर्थ ठहरेगी, क्योंकि अब तो मन ही आत्मा बन कर बैठ गया है।।१७।। तथा,
[ एकान्तवाद में सुख-दुःख भोगादि की अनुपपत्ति ] गाथार्थ :- नित्यवादपक्ष में सुख-दुःखसंयोग नहीं घट सकता । एकान्तविनाश में भी सुख-दुःख का विकल्पन अयुक्त है।।१८।। 25
व्याख्यार्थ :- अबाधास्वरूप सुख और बाधास्वरूप दुःख का, एकान्तनित्यवाद मत में संबन्ध नहीं बैठ सकता, क्योंकि द्रव्यास्तिक नय के मत में यदि आत्मा सुखस्वभावी होगा तो स्वभाव अचल होने के कारण हरहमेश सुखी ही बना रहेगा, कभी दुःखस्पर्श होगा नहीं। यदि दुःखस्वभाव होगा तो अचलस्वभाव के कारण हमेशा दुःखी रहेगा। एवं पर्यायास्तिक मत में भी एकान्त विनाशी आत्म
वाद में सुख-दुःख का सम्बन्ध घटेगा नहीं, क्योंकि सुखी क्षण और दुःखी क्षण सर्वथा पृथक् हैं। तदुपरांत, 30 दोनों पक्ष में सुखप्राप्ति और दुःखनाश के लिये विकल्पन यानी विशिष्ट प्रयत्न (क्लृप् धातु यहाँ प्रयत्नार्थक
समझना) भी घट नहीं सकता, क्योंकि नित्यपक्ष में सुख-दुःख अचल स्वभाव होने से प्राप्ति-परिहार
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