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खण्ड-३, गाथा-१२ प्रत्यनपेक्षश्च भावः' (२०-२) तदपि परिणामप्रसाधकम्, भावस्योत्तरपरिणामं प्रत्यनपेक्षतया तद्भावनियतत्वोपपत्तेः। पूर्वक्षणस्य स्वयमेवोत्तरीभवतोऽपरापेक्षाऽभावतः क्षेपाऽयोगात् उत्पन्नस्य चोत्पत्ति-स्थितिविनाशेषु कारणान्तरानपेक्षस्य पुनः पुनरुत्पत्ति-स्थिति-विनाशत्रयमवश्यं भावि। तदेवं कस्यचिदंशस्य पदार्थाध्यक्षतायामप्यनिर्णये तस्य सांशतामभ्युपगच्छन् कथमंशेनोत्पन्नस्यांशान्तरेण पुनः पुनरुत्पत्तिं नाभ्युपगच्छेद् येनैकं वस्त्वनन्तपर्यायं नाङ्गीकुर्वीत ? ___ न चैकान्तसाधने उदाहरणमपि किञ्चिदस्ति, अध्यक्षाधिगतमनेकान्तमन्तरेणाऽन्तर्बहिश्च वस्तुसत्तानुपपत्तेः। न च निरन्वयविनाशमन्तरेण किञ्चिद् वस्तु अनुपपद्यमानं संवेद्यते; यतो बहीरूप-संस्थानाद्यात्मना अध्यक्षप्रतीतमनेकान्तमन्तर्विकल्पाविकल्पस्वरूपं संशय-विपर्यास-संवेदनात्मकं वा स्वसंवेदनसिद्धमपहाय निरन्वयक्षणक्षयलक्षणं वस्तु प्रकल्पे(?ल्प्य)त। न चानुस्यूतिव्यतिरेकेण ज्ञानानां कार्य-कारणभावोऽपि युक्तिसङ्गतः आस्तां स्मृति-प्रत्यभिज्ञा-वासना-सन्तानादिव्यवहारः। न हि भेदाऽविशेषेऽपि कथञ्चित् तादात्म्यमन्तरेण 10 भेदानामयं नियमः सिद्धिमासादयति केषांचिदेव, अन्यथा ग्राह्य-ग्राहकाकारयोरपि तादात्म्याभावप्रसक्तिर्भवेत् । अन्य (दण्डादि) निरपेक्ष होते हैं वे उस भाव से अवश्यंभावि होते हैं, जैसे अन्तिम कारण सामा कार्योत्पादन में। भाव भी विनाश के लिये अन्यनिरपेक्ष होते हैं - यह व्याप्ति भी वस्तु के परिणाम को ही सिद्ध करती है। भावमात्र अपने उत्तरपरिणाम के लिये निरपेक्ष होते हैं अतः वे उत्तरपरिणाम
हैं - यह सिद्ध होता है। पर्वक्षण को स्वयं उत्तरपरिणामप्राप्ति के लिये किसी 15 की अपेक्षा न होने से उत्तरपरिणामप्राप्ति के लिये विलम्ब नहीं होता। इसी तरह, उत्पन्न भाव को भी अन्य अन्य अंशों से उत्पत्ति-स्थिति-विनाशात्मक परिणाम प्राप्ति के लिये अन्य किसी कारण की अपेक्षा नहीं होती अतः पुनः पुनः उस की उत्पत्ति-स्थिति-विनाश ये तीन धर्म अवश्य होता ही रहेगा। इस प्रकार, बौद्ध जब वस्तु के कुछ अंश का प्रत्यक्ष मानने पर भी उस का अनिश्चय स्वीकारता हुआ वस्तु की सांशता को मान्य रखता है तो एक अंश से उत्पन्न किन्तु अन्य अन्य अंशो से पुनः 20 पुनः उत्पत्तिशील ऐसे पदार्थ को कैसे अमान्य करेगा जिस से कि अनन्तपर्यायवाली वस्तु का बहिष्कार कर सके ?
[एकान्तमतसिद्धि में दृष्टान्ताभाव ] दुनिया की हर कोई चीज अन्योन्य विरोधाभासि अनन्तधर्मिक ही है अत एव एकान्तवाद को सिद्ध करने के लिये एकान्त एकरूप हो ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। यद्यपि हम लोगों को वस्तु 25 के अनन्त धर्मों का प्रत्यक्ष भले न होता हो फिर भी अपने अपने प्रत्यक्ष से उत्पादादि अन्योन्यविरोधाभासी अनेक धर्मों का यानी अनेकान्त का प्रत्यक्ष होना अनुभवसिद्ध है, अनेकान्तमयता के बिना बाह्य-आन्तररूप से वस्तु-सत्ता दुर्घट है। ऐसा कोई संवेदन नहीं जिस में निरन्वय विनाश के बिना कोई वस्तु असंगत होने का ध्यान में आ सके, जिस के फलस्वरूप :- बाह्यरूप-संस्थानादि संबन्धि प्रत्यक्षसिद्ध अनेकान्त का, तथा भीतर में स्वसंवेदनसिद्ध ऐसा विकल्प-अविकल्पादि नानास्वरूप संशय-विपर्यय-संवेदन का त्याग 30 कर के निरन्वयनाशस्वरूप एकान्त वस्तु की कल्पना करनी पडे। स्मृति-प्रत्यभिज्ञा-वासना-सन्तानादि व्यवहार तो दूर रहो, एक अनुगत सामान्य के बिना ज्ञानों में कारण-कार्यभाव भी युक्तिघटित नहीं हो सकता।
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