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खण्ड-३, गाथा-१२
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तद्विशेषकल्पनायास्त्वक्षणिकेष्वप्यविरोधात् । तथाहि- यद् यदा यत्र कार्यमुत्पित्सु तत् तदा तत्रोत्पादनसमर्थमक्षणिकं वस्त्विति कल्पनायां न काचित् क्षतिः। न च स्वयमेव प्रतिनियतसमयस्य कार्यस्योत्पत्त्यभ्युपगमे न किञ्चित् कारणाभिमतभावेन तस्य कृतमिति न तत्कार्यतया तद्व्यपदेशमासादयेदिति वक्तव्यम्, (अ)क्षणिकपक्षेऽप्यस्य समानत्वात्। तस्मात् कथञ्चिद् व्यवस्थितस्यैव भावस्य जन्म-विनाशयोर्दर्शनाद् यथादर्शनं हेतु-फलभावव्यवस्थितेः परिणामसिद्धिः समायाता।
न चाऽभेदबुद्धिर्भ्रान्ता, भेदबुद्धावपि तत्प्रसक्तेः, स्वप्नावस्थाहस्त्यादिभेदबुद्धिवत् । न च मिथ्याबुद्धीनामपि विसंवादो भावमात्रे, भेदेष्वेव तद्दर्शितेषु विप्रतिपत्त्युपलब्धेः। तस्मादक्षणिकत्वे क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् क्षणिकत्वमभ्युपगच्छन् क्षणिकानामर्थक्रियादर्शनमभ्युपगच्छेत्, अन्यथा सत्त्वादेर्हेतोर्विपक्षव्यावृत्तिप्रसाधिकाया अनुपलब्धेर्व्यतिरेकासिद्धेः, अक्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधः क्षणिकत्वेऽर्थक्रियोपलम्भमन्तरेण कथं सिद्धिमासादयेत् ? न चाऽक्षणिकेऽर्थक्रियाविरोधादेव क्षणिकेऽर्थक्रियोपलब्धिः, इतरेतराश्रयप्रसक्तेः। 10 [?? तथाहि- विपक्षे प्रत्यक्षवृत्तेरनुपलब्धेर्व्यतिरेकसिद्धिः। तत्र प्रत्यक्षवृत्तिरक्षणिकत्वेऽर्थक्रियाविरोधात कारण में स्वीकारा जाय तो अच्छा है कि वह विशेष अक्षणिक में ही विरोध न होने से मान लिया जाय। कैसे यह देखिये - जो कोई कार्य जब जहाँ उत्पत्त्यभिमख होगा उसे वहाँ उस काल में करने के लिये अक्षणिक वस्तु समर्थ होगी - ऐसा मान लेने में कोई हानि नहीं है। शंका :- प्रतिनियतकाल में स्वतः ही कार्योत्पत्ति मान ले तो ? कारणरूप से अभिप्रेत भाव ने तो कार्य के लिये कुछ किया 15 ही नहीं, फलतः वह अमुक कारण का कार्य है ऐसा व्यवहार भी नहीं बच पायेगा, अतः कारणता की सुरक्षा के लिये क्षणिक पदार्थ में कुछ विशेष मानना पडेगा। उत्तर :- यही बात अक्षणिक पक्ष के लिये भी समानतया कही जा सकती है। सारांश, कथंचिद् स्थिरभाव के ही उत्पत्ति-विनाश दृष्टिगोचर होते हैं, तो दर्शन के अनुरूप ही कारण-कार्य भाव का स्वीकार करना चाहिये - इस प्रकार परिणामवाद की सिद्धि फलित होती है।
___ [ अभेदबुद्धि हरहमेश भ्रान्त नहीं होती ] अभेदबुद्धि को भ्रान्त कहना गलत है, भेदबुद्धि में भी भ्रान्तता का प्रवेश सम्भव है, जैसे स्वप्नावस्था में हाथी-बैल इत्यादि में भेदबुद्धि भ्रान्त होती है। जो मिथ्याबुद्धियाँ कही जाती है वे भी भावसामान्यग्राही होने में कोई विसंवाद नहीं है, विसंवाद तो मिथ्याज्ञानप्रदर्शित भेदों के बारे में होता है। अतः जो बौद्धवादी अक्षणिक में क्रमिक या युगपद् अर्थक्रिया के विरोध से डर कर क्षणिकत्व का स्वीकार करने को त्वरा 25 करता है उस को पहले तो क्षणिक वस्तु में अर्थक्रिया का दर्शन सिद्ध करना होगा। अन्यथा, सत्त्व हेतु की विपक्ष (अक्षणिक) से व्यावृत्ति की साधक जो अनुपलब्धि है वह विपक्ष की तरह पक्ष में भी जाग्रत् होने से विपक्षमात्र से सत्त्वहेतु की व्यावृत्ति असिद्ध हो जायेगी। इस स्थिति में, क्षणिक वस्तु में अर्थक्रियोपलब्धि के बिना अक्षणिक में अर्थक्रियाविरोध की सिद्धि होगी कैसे ? अक्षणिक में अर्थक्रिया के विरोध की कल्पना से यदि क्षणिक में अर्थक्रियोपलब्ध मान लेंगे तो स्पष्ट अन्योन्याश्रय दोष आयेगा। 30 (तथाहि... से ले कर... व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम्- यहाँ तक अशुद्ध पाठ होने से शब्दशः यथार्थ विवेचन शक्य नहीं है किन्तु भाव ग्रहण कर यह विवरणप्रयास किया है -) अक्षणिक में अर्थक्रियाविरोध की सिद्धि होगी
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