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खण्ड - ३, गाथा - १२
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तथैवार्थक्रियाविरोधात्। तथाहि — क्षणिकत्वे कार्य-कारणयोर्योगपद्येन कुतः कार्य-कारणभावव्यवस्था ? क्रमोत्पादे हेतोरसतः कुतः फलजनकत्वम् ?
निरन्वयविनाशाभ्युपगमे चानन्तरं विनष्टस्य चिरतरविनष्टस्य च विनष्टत्वाऽविशेषात् चिरतरविनष्टादपि कार्योत्पत्तिप्रसक्तिः । भावस्य हि विद्यमानत्वाद् अनन्तरकार्योत्पादनसामर्थ्यम् न व्यवहिततदुत्पादनसामर्थ्यम् इति विशेषो युक्तः न पुनरभावस्य निःस्वभावत्वाऽविशेषात् । अनेकान्तवादिना हि कथंचिद् भेदाभेदौ 5 हेतु-फलयोर्व्यवस्थापयितुं शक्यौ संवेदनस्य ग्राह्य-ग्राहकाकारयोरिव । भेदाऽभेदैकान्ती तु परस्परतो न विशेषमासादयत इति न निरन्वयनाशव्यवस्था नित्यताव्यवस्था वा कर्तुं शक्या । यतो न क्षणिकक्षेऽपि सत्ताव्यतिरेकेण अपरा अर्थक्रिया सम्भवति सा चाऽक्षणिकेऽपि समाना । यथा हि क्षणिकस्य स्वसत्ताकाले कुर्वतोऽपि कार्यं स्वत एव न भवति भावे वा कार्य-कारणयोर्यौगपद्येन न कार्य-कारणव्यवस्था । नापि होता है। देखिये यदि क्षणिकवाद में कारण कार्य का यौगपद्य मानेंगे तो कौन कारण कौन कार्य 10 यह निश्चय ही शक्य नहीं बनेगा। क्षणिक कारण से क्रमशः कार्योत्पत्ति असम्भव है क्योंकि एक क्षण के बाद जिस का खुद का अस्तित्व ही नहीं है वह क्रमश: पहले दूसरे-तीसरे आदि क्षणों में फलोत्पादन करेगा ही कैसे ?
[ क्षणिकवाद में चिरविनष्टवस्तु से कार्य की आपत्ति ]
वस्तुमात्र का दूसरे क्षण में निरन्वय विनाश माननेवाले बौद्ध मतवादी को यह भी आपत्ति होगी 15 दीर्घ भूतकाल में विनष्ट घटादि से वर्त्तमान में जलाहरणादि कार्य हो जायेगा । कारण :- समकालीन कारण-कार्यभाव ही मान्य है । कार्यक्षण में कारण विनष्ट होता है फिर भी उसे वर्त्तमान कार्य का उत्पादक माना जाता है । वर्त्तमान में जैसे पूर्वक्षण विनष्ट है वैसे ही बिना फर्क पूर्वतरादि हजारों क्षण भी विनष्ट हैं विनष्ट विनष्ट में कोई तफावत नहीं होता सब असत् हैं, तो विनष्ट पूर्व क्षण की तरह विनष्ट हजारों पूर्वतरादि क्षणों से भी कार्य क्यों उत्पन्न नहीं होगा ? हाँ, भावों में यह 20 तफावत होता है जो भाव विद्यमान है वह निरन्तर उत्तरकाल में कार्योत्पत्ति के लिये समर्थ होता है, वह यदि कार्य से क्षेत्र - काल से दूर व्यवहित होता है तो उस में व्यवहितकार्योत्पादन सामर्थ्य नहीं होता, क्योंकि उस का समर्थ स्वभाव देश-कालमर्यादित होता है । अभाव ( नाश) में ऐसी विशेषता नहीं होती क्योंकि उस में कोई स्वभाव ही नहीं होता । अनेकान्तवाद में कारण कार्य में कथंचिद् भेदाभेद की व्यवस्था सुकर है जैसे संवेदन में ग्राह्याकार - ग्राहकाकार के भेदाभेद की व्यवस्था की जाती है। 25 एकान्त भेद या अभेद पक्षों में कारण- कार्य में कोई स्पष्ट विशेषता का निश्चय नहीं होने से एकान्त निरन्वयनाश अथवा एकान्त नित्यता की संगतव्यवस्था हो नहीं सकती । चाहे क्षणिकवाद हो या नित्यवाद, सत्ता को छोड़ कर और कोई अर्थक्रिया होती नहीं है ।
[ अक्षणिक पक्ष में कार्यों की स्वनियतकाल व्यवस्था सुघट ]
जैसे क्षणिक भाव अपनी सत्ता के काल में कार्य (अर्थक्रिया) करता फिर भी स्वतः (अपनी मौजूदगी 30 में) ही कार्योत्पत्ति हो नहीं जाती। अगर स्वतः ही हो जायेगी तो कारण कार्य समकालीन बन जाने पर सव्येतर ( दायें-बायें) गो-विषाणवत् उन में 'यह कारण यह कार्य' ऐसी विभक्त व्यवस्था नहीं हो पायेगी,
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