________________
खण्ड-३, गाथा-१२
२५७ ततस्तद्वत्ताप्रसक्तेः । न चोत्पादादे: परस्परतः तद्वतश्च भेदैकान्तः, सम्बन्धाऽसिद्धितो निस्स्वभावताप्रसक्तेः ।
एतेन उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययोगाद् यदि असतां सत्त्वम् शशशृंगादेरपि स्यात् सतश्चेत् स्वरूपसत्त्वमायातम् । तथोत्पाद-व्यय-ध्रौव्याणामपि यद्यन्यतः सत्त्वम् अनवस्थाप्रसक्तिः, स्वतश्चेद् भावस्यापि स्वत एव तद् भविष्यतीति व्यर्थमुत्पादादिकल्पनम् एवं तद्योगेऽपि वाच्यम्'... इत्यादि यदुक्तम् तन्निरस्तं दृष्टव्यम् एकान्तभेदाभेदपक्षोदितदोषस्य कथंचिद्भेदाभेदात्मके वस्तुन्यसम्भवात्। न हि भिन्नोत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययोगाद् 5 भावस्य सत्त्वमस्माभिरभ्युपगम्यते किन्तु 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययोगात्मकमेव सत्' इत्यभ्युपगमः ।
विरोधादिकं चात्र दूषणं निरवकाशम्, अन्तर्बहिश्च सर्ववस्तुनस्त्रयात्मकस्याऽबाधिताध्यक्षप्रतिपत्तिविषयत्वात् स्वरूपे विरोधाऽसिद्धेः, अन्यथाऽतिप्रसक्तेः । एकान्तनित्यानित्यस्य प्रमाणबाधितत्वात् अनुभवरूपस्य चाऽसम्भवात्, शून्यताया निषेत्स्यमानत्वात्, पारिशेष्यात् कथंचिद् नित्यानित्यं वस्तु अबाधितप्रमाणगोचरअभेद होने पर कोई सम्बन्ध ही नहीं घटेगा। शंका :- एकान्त अभेद मानेंगे और वस्तुअस्पर्शी विकल्प 10 के जादु से 'तीन' की रचना एवं कल्पितसम्बन्ध से तद्युक्तता भी घट जायेगी। उत्तर :- नहीं, विकल्प का जादु चलाने पर तो शशसींग को खपुष्पमाला-परिधान आदि अतिप्रसंग होता रहेगा। तथा, उत्पादादि तीन का परस्पर एकान्त भेद एवं तीन से युक्त वस्तु का एकान्तभेद भी मान नहीं सकते क्योंकि यहाँ भी सम्बन्ध न घटने से घटादि में अवस्तुत्व की घुस होगी।
उपरोक्त निरूपण से यह एक कथन भी निरस्त हो जाता है – कथन :- उत्पाद-नाश-स्थिरता 15 के योग से आप किस का सत्त्व मानेंगे ? असत् का या सत् का ? यदि असत् का, तो शशसींग आदि का भी सत्त्व प्रसक्त होगा। यदि पूर्व में सत् का, तो मतलब उत्पादादि योग के बिना भी पूर्व वस्तु में स्वरूपतः सत्त्व मौजूद है फिर उत्पादादि का क्या प्रयोजन ? तथा उत्पादादि तीन स्वतः सत् हैं या अन्य (उत्पादादि) के योग से ? यदि अन्य योग से, तो उन का भी अन्य योग से...
वस्था दोष लगेगा। यदि वे तीन स्वतः ही सत् हैं तो उन के योग के बिना वस्तु 20 में भी स्वतः ही सत्त्व रह पायेगा - अतः उत्पादादि की कल्पना निष्फल है। इसी प्रकार, उत्पादादि के योग से वस्तु का सत्त्व मानने पर भी उक्त दोष समझ लेना।
निरसन :- यह सब जो कहा है वह सब पूर्वोक्त भेदाभेद के प्रतिपादन से निरस्त हो जाता है। एकान्त भेद या एकान्त अभेद पक्ष में जो दोष लगाये जाते हैं वे कथंचिद् भेद-अभेद स्वरूप वस्तु मानने पर सम्भव नहीं होते। हम ऐसा नहीं कहते कि पृथक् पृथक् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य के योग 25 से भाव 'सत्' होता है। हम तो मानते हैं कि जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य योगात्मक होता है वह 'सत्' होता है।
अनेकान्तवाद में भेदाभेद उभय मानने पर जो विरोध संकर आदि दोष-संभावना करते हैं वे निरवकाश हैं। जब भीतर में या बाहर, जब वस्तुमात्र में उत्पादादित्रयात्मकता निर्बाधप्रत्यक्षप्रतीतिगोचर है तब तथाविध स्वरूप में कोई कल्पित विरोधादि दोषों को स्थान नहीं है। बलात् दोष निवेदन 30 करेंगे तो सर्वत्र दोष-दोष ही शेष बचेगा। सारांश, वस्तु को एकान्ततः नित्य या अनित्य मानने में प्रमाणबाध है, अनुभयस्वरूप का सम्भव नहीं है, आखिर शून्यता मान ले तो उस का भी अग्रिम
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org