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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ नयो न स्त: यदुक्तम् 'तीर्थकरवचनसंग्रह' - इत्यादि तद् विरुध्यत इत्याह- भयणाय उ विसेसो = भजनायास्तु विवक्षाया एव विशेष:- ‘इदं द्रव्यम् – अयं पर्याय' इत्ययं भेदः, तथा त दाद् विषयिणोऽपि तथैव भेद इत्यभिप्रायः । भजना च - सामान्यविशेषात्मके वस्तुतत्त्वे उपसर्जनीकृतान्वयीरूपं तस्यैव वस्तुनो यदसाधारणं रूपं तद् विवक्ष्यते तदा पर्यायनयविषयस्तद् भवतीति ।।९।।
[ अन्योन्यनययोः तत्तद्विषययोरवस्तुता ] एवंरूपभजनाकृतमेव भेदं दर्शयितुमाह(मूलम्) दव्वट्ठियवत्तव्वं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स।
___ तह पज्जववत्थु अवत्थुमेव दव्वट्टियनयस्स ।।१०।। पर्यायास्तिकस्य द्रव्यास्तिकाभिधेयमस्तित्वमवस्तु एव भेदरूपापन्नत्वात्, द्रव्यास्तिकस्यापि पर्यायास्ति10 काभ्युपगता भेदा अवस्तुरूपा एव भवन्ति सत्तारूपापन्नत्वात्। अतो भजनामन्तरेणैकत्र सत्ताया अपरत्र
च भेदानां नष्टत्वात् 'इदं द्रव्यम् एते च पर्यायाः' इति नास्ति भेदः । न च प्रतिभासमानयोर्द्रव्य-पर्याययोः
__ शंका :- यदि विषय न होने से शुद्धाभिमानी दो नय नहीं है तो तीर्थंकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तारमूलव्याकरणी द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक इत्यादि तीसरी गाथा से जो पहले कह आये हैं उस के साथ विरोध प्रसक्त होगा ।
समाधान :- ‘भयणाय उ विसेसो' मतलब कि दोनों का विभाग विवक्षाभेदाधीन है, (यानी वास्तविक 15 नहीं है।) य द्रव्य और ये पर्याय - ऐसा जो लौकिक या शास्त्रीय विषय या व्यवहारभेद है वह
विवक्षाभेद से होता है। विषयभेद से विषयी नयों का भी भेद हो जाता है। यहाँ भजनाशब्द का अर्थ 'विवक्षा' कहा है – उस का स्पष्टीकरण :- वस्तुतत्त्व सामान्य-विशेषात्मक है, जब विशेष को गौण कर के पर्यायों में अनुगत अन्वयी रूप की प्रधानरूप से विवक्षा की जाती है तब 'द्रव्य' कहा
जाता है और वह द्रव्यार्थिक का विषय बनता है। जब अन्वयीरूप को गौण करके उसी वस्तु के 20 असाधारणरूप की विवक्षा की जाय तब वह द्रव्यार्थिक का विषय बनता है।।९।।
[ अन्योन्य नय से तत्तद् विषय की अवस्तुता ] अवतरणिका :- पूर्वगाथा में भजनाकृत भेद का निर्देश किया है, अब उस के स्वरूप का निरूपण १० वी गाथा में करते हैं -
गाथार्थ :- द्रव्यार्थिक का वक्तव्य पर्यायनय की अवश्य अवस्तु है। तथा पर्यायनय की वस्तु 25 द्रव्यार्थिकनय की अवश्य अवस्तुरूप है।।१०।।
व्याख्यार्थ :- द्रव्यास्तिक प्रतिपाद्य अस्तित्व (= सत्तासामान्य) पर्यायास्तिकनय की दृष्टि में वस्तुरूप है ही नहीं, क्योंकि वह तो भेदरूप के प्रति झुक कर बैठा है। तथा, पर्यायास्तिक स्वीकृत भेद (= विशेष) द्रव्यास्तिक की दृष्टि में अवस्तुरूप (= मिथ्या) ही है क्योंकि वह सत्ता की ओर झुका है।
ये दोनों जब परस्पर विरुद्ध बिन्दु पर जा बैठे हैं तब भजना ही (विवक्षा ही) यहाँ सामञ्जस्य 30 कर सकती है। भजना के बिना एक और सत्ता नाशाभिमुख है तो दूसरी ओर भेद नाशाभिमुख
हैं, तो यह द्रव्य - ये पर्याय' ऐसा भेद (विभाग) कैसे होगा ?
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