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खण्ड-३, गाथा-९
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= गृहीत्वा त्यक्तम् यथा किमिदं मृत्सामान्यं घटादिभिर्विना प्रतिपत्तिविषयः ? यावत् शुक्लतमरूपस्वरूपोऽन्त्यो विशेषः एतद् द्रव्यार्थिकस्य वस्तु = विषयः यतो यावद् अपश्चिमविकल्पनिर्वचनोऽन्त्यो विशेष: तावद् द्रव्योपयोगः द्रव्यज्ञानं प्रवर्त्तते, न हि द्रव्यादयो विशेषान्ताः सदादिप्रत्ययाः विशिष्टैकान्तव्यावृत्तबुद्धिग्राह्यतया प्रतीयन्ते। न च तथाऽप्रतीयमानास्तथाऽभ्युपगमार्दा अतिप्रसङ्गात् ।।८।।
[शुद्धद्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकास्तित्वं गगनपुष्पवत् ] तदेवं न सत्ता विशेषविरहिणी, नापि विशेषाः सत्ताविकला इति प्रदोपसंहरन्नाह(मूलम्) दव्वढिओ त्ति तम्हा नत्थि णओ नियम सुद्धजाईओ।
__ण य पज्जवढिओ णाम कोई भयणाय उ विसेसो।।९।। तस्माद् द्रव्यार्थिकः इति नयः शुद्धजातीयः विशेषविनिर्मुक्तो नास्ति 'नियमेन' इत्यवधारणार्थः विषयाभावेन विषयिणोऽप्यभावात् । न च पर्यायार्थिकोऽपि कश्चिद् नयः 'नाम' इति प्रसिद्धार्थः नियमेन 10 शुद्धस्वरूपः सम्भवति; सामान्यविकलात्यन्तव्यावृत्तविशेषविषयाभावेन विषयिणोऽप्यभावात्। यदि विषयाभावादिमौ सूक्ष्मरूप को पकड कर जिस वस्तु का व्युत्क्रमण यानी ग्रहण किया और छोड दिया (यह है पर्यायनय व्युत्क्रान्त वस्तु)। जैसे कि जिज्ञासा की जाय कि यह क्या है ? तब ज्ञाता पहले साधारण यह मिट्टी है - ऐसा द्रव्यबोध करता है, फिर यहाँ से ले कर अपश्चिमविकल्पनिर्वचन तक. यानी अतिअति शुक्ल है वहाँ तक) यह प्रतीति विषयभूत द्रव्य घटादि है, फिर श्वेत है, श्वेततर (= अधिकश्वेत) 15 श्वेततम है... (अत्यन्तश्वेत) है यहाँ तक द्रव्यार्थिक की विषयसीमा है। वहाँ तक द्रव्योपयोग यानी द्रव्यसंबन्धि ज्ञान प्रवृत्त रहता है। यहाँ व्याख्याकार यह स्पष्टता करते हैं कि द्रव्यादि से ले कर अन्त्य विशेष पर्यन्त जो सत्, द्रव्य, मिट्टी, घट शुक्ल शुक्लतर शुक्लतम इत्यादि प्रतीतियाँ हैं वे अन्यनयविषय से विनिर्मुक्त एकान्ततः भेदबुद्धि के सम्बन्धिरूप से प्रतीत नहीं होती। जिस रूप से वे प्रतीत नहीं होती उस रूप से वे स्वीकृतिपात्र भी नहीं हो सकती क्योंकि तब शशशींग आदि 20 का भी सत् आदिरूप से स्वीकार्य होने का अनिष्ट प्रसङ्ग होगा।
[ शुद्ध द्रव्यार्थिक शुद्ध पर्यायार्थिक कोई है नहीं ] अवतरणिका :- इस प्रकार, विशेषवियुक्त कोई सत्ता नहीं होती, और सत्तावियुक्त कोई विशेष नहीं होते - यह निर्दिष्ट कर के अब उपसंहार करते हैं - ____ गाथार्थ :- इस कारण से नियमतः शुद्धजातीय कोई द्रव्यार्थिक नहीं होता, और पर्यायार्थिक भी 25 नहीं होता। भजना से भेद होता है।।९।। ___ व्याख्यार्थ :- एकान्ततः भेद या समानता न होने से, विशेषवियुक्त शुद्धाभिमानीजातीय कोई द्रव्यार्थिक नय नहीं ही होता। 'नियम' पद अवधारण का द्योतक है। (नास्ति एव ऐसा समझना) जब विषय (विशेषवियुक्त सत्ता) नहीं है तो विषयी (तद्ग्राहि नय) कैसे होगा ? उपरांत, यह भी प्रसिद्ध है कि शुद्ध स्वरूपवाला पर्यायार्थिक कहा जाय ऐसा कोई नय नहीं ही है। 'नाम' शब्द इस तथ्य की 30 प्रसिद्धता का द्योतक है। यहाँ भी 'नियम' पद से अवधारण समझ लेना।
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