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खण्ड-३, गाथा-१२
२४९ स्वरूपाः परस्पराविनिर्भागवर्तिनः, ‘हन्दि' इत्युपप्रदर्शने, द्रव्यलक्षणं = द्रव्यास्तित्वव्यवस्थापको धर्मः एतद् दृश्यताम्, यतः पूर्वोत्तरपर्यायपरित्यागोपादानात्मकैकान्वयप्रतिपत्तिः तथाभूतद्रव्यसत्त्वं प्रतिपादयतीत्युत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं वस्त्वभ्युपगन्तव्यम् । एतच्च त्रितयं परस्परानुविद्धम् अन्यतमाभावे तदितरयोरप्यभावात् ।
[ सविस्तरं उत्पादादेरन्योन्याविनाभावित्वोपपादनम् ] तथाहि- न ध्रौव्यव्यतिरेकेण उत्पाद-व्ययौ सङ्गतौ, सर्वदा सर्वस्यानुस्यूताकारव्यतिरेकेण विज्ञान- 5 पृथिव्यादिकस्याऽप्रतिभासनात्। न चानुस्यूताकारावभासो बाध्यत्वादसत्यः तद्बाधकत्वानुपपत्तेः। यतोऽनुस्यूताकारस्य विशेषप्रतिभासो बाधकः परिकल्प्येत, स एव चानुपपन्नः । तथाहि- अनुगतरूपे प्रतिपन्नेBऽप्रतिपन्ने वा विशेषावभासोऽभ्युपगम्येत ? यदि प्रतिपन्ने तदा किमनुस्यूतप्रतिभासात्मको विशेषप्रतिभासः, उत तिद्व्यतिरिक्त इति कल्पनाद्वयम् । यद्यव्यतिरिक्तः तदा ध्रौव्यावभासस्य मिथ्यात्वे विशेषावभासस्यापि तदात्मकत्वाद् मिथ्यात्वापत्तेः कथमसौ तस्य बाधकः ? अथ "द्वितीयो विकल्पस्तत्रापि ध्रोव्यप्रतिभासमन्तरेण 10 स्थास-कोशादिप्रतिभासस्य तद्व्यतिरिक्तस्याऽसंवेदनात् कथं तद्बाधकतोपपत्ति: ? न चाक्षव्यापारानन्तरमन्वयप्रतिभासनमन्तरेण विशेषप्रतिभास एवोपजायत इति वक्तव्यम् प्रथमाक्षव्यापारे प्रतिनियतदेशवस्तुमात्रस्यैव जा चुका है - वही द्रव्य का लक्षण है, मतलब द्रव्य के अस्तित्व को निश्चित करानेवाला धर्म है - यह समझ लो। कारण :- पूर्वपर्याय त्याग – उत्तरपर्यायग्रहण उभयात्मक एक अन्वयी तत्त्व की प्रतीति तथाविध (त्रितय युक्त) द्रव्य के सत्त्व का स्पष्ट निर्देश करती है, अतः वस्तु का उत्पाद- 15 व्यय-स्थिति रूप लक्षण स्वीकार लेना चाहिये। उत्पादादि तीनों ही एक-दूसरे से मिले-जुले ही होते हैं, उन में से एक के भी न होने पर अन्य दो भी नहीं रह पायेंगे ।
[ उत्पादादि तीनों के अविनाभावित्व का उपपादन ] उत्पादादि तीन का अनुषंग किस तरह है यह देखिये - ध्रुवता के बिना उत्पाद-व्यय सिद्ध नहीं हो सकते। कारण:- कभी किसी को अनुगत आकार विहीन विज्ञान या पृथ्वी आदि भेदों का प्रतिभास 20 नहीं होता। नहीं कह सकते कि 'अनुगताकार बाध्य होने से असत्य है' – क्योंकि उसका कोई बाधक प्रमाणोपलब्ध नहीं है। यदि कल्पना कर ले कि विशेषप्रतिभास अनुगताकार (= सामान्य तत्त्व) का बाधक है - तो वह भी संगत नहीं। देखिये - Aज्ञात अनुगताकार के बाद बाधक विशेषप्रतिभास होगा या Bअज्ञात अनुगताकार के ? यदि ज्ञात होने के बाद, तो वह विशेष प्रतिभास अनुगताकारप्रतिभास से अभिन्न होगा या bभिन्न ? ये जो दो कल्पना है उसमें अभिन्न कल्पना मान लेंगे तो यह विपदा 25 आयेगी कि अनुगताकारप्रतिभास (यानी ध्रुवता का भान) को यदि मिथ्या मानेंगे तो तदात्मक होने से विशेषप्रतिभास में भी मिथ्यात्व प्रसक्ति होगी। फिर वह मिथ्या प्रतिभास दूसरे का बाधक बनेगा कैसे ? यदि वह विशेष प्रतिभास सामान्यप्रतिभास से भिन्न होगा तो ऐसा होगा कि मिट्टीतत्त्व के
ध्रुवता-प्रतिभास के बिना मिट्टी अन्तर्भूत स्थास, कोशादि के प्रतिभासों का स्वतन्त्ररूप से प्रतिभास का . संवेदन न होने के कारण जो है नहीं वह बाधक कैसे होगा ?
[इन्द्रियसंनिकर्ष के बाद अन्वयभान की उपपत्ति ] यदि कहें कि - ‘इन्द्रियव्यापार उत्तरक्षण में अन्वयि तत्त्व प्रतिभास न हो कर विशेष प्रतिभास ही निपजता है' - तो ऐसा मत बोलना, क्योंकि प्रथम प्रथम इन्द्रियसंनिकर्ष से तो प्रतिनियत देश
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