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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
स्थूलैकाकारः पारमार्थिको न भवेत् न किञ्चिद् बहिरध्यक्षेऽवभासेत, परमाणु- पारिमाण्डल्य - नानात्वपरोक्षस्वभावत्वस्वभावानां सञ्चितेष्वप्यणुषु स्थूलैकाकाराध्यक्षस्वभावेन विरोधात्, अविरोधे वाऽनेकान्तत्वप्रसक्तेः तथाभूतस्वभावसद्भावेऽपि तेषु पारिमाण्डल्य - नानात्व-परोक्षत्वस्वभावानपायात् ।
अपाये वा परमाणुरूपतात्यागात् स्थूलैकाकारस्य तेषु सांवृतत्वे साकाराऽध्यक्षाजनकत्वेन न किञ्चिदपि 5 तत्र प्रतिभासेत। तदनध्यक्षत्वे तत्प्रत्यनीकस्य स्वभावस्य पारिमाण्डल्यादेश्चक्षुरादिबुद्धौ रसादेरिवाऽप्रतिभासनाद् बहिरर्थप्रतिभासशून्यं जगद् भवेत् । स्थूलैकाकारग्राह्यवभासस्य च भ्रान्तत्वे न किञ्चिद् कल्पनापोढं प्रत्यक्षमभ्रान्तं भवेत्। तदभावे च प्रमाणान्तरस्याप्यप्रवृत्तेरन्तर्बाह्यरूपस्य प्रमेयस्याऽव्यवस्थितेर्न कस्यचिदभ्युपगमः प्रतिक्षेपो वेति निर्व्यापारं जगद् भवेत् । तस्मात् क्षणस्थितिधर्मणोऽपि बाह्यान्तर्लक्षणस्य वस्तुनः परस्परव्यावृत्तपरमाणुरूपस्य कथंचिदनुवृत्तिरभ्युपगन्तव्या, अन्यथा प्रतिभासविरतिप्रसक्तेः । तदभ्युपगमे च 10 परस्परव्यावृत्तयोर्हेतु-फलयोरपि प्रत्यक्षगता अनुगतिरभ्युपगमनीयेव । कल्पनाज्ञाने भ्रान्तसंविदि वा स्वसंवेदनापेक्षया विकल्पेतरयोर्भ्रान्तेतरयोश्च परस्परव्यावृत्तयोराकारयोः कथञ्चिद् अनुवृत्तिमभ्युपगच्छन् कथमध्यक्षां हेतुअणुओं में स्वतन्त्र मिजाज है जैसे सूक्ष्मता - अणुपरिमाण-पृथक्त्व-परोक्षता आदि, तब हजारो समुदित परमाणु भी मिल कर अपने मिजाज से विरुद्ध एकस्थूलाकार - प्रत्यक्षत्व की प्राप्ति नहीं कर सकते। यदि उन मिजाजों में विरोध नहीं स्वीकारेंगे तो आप का प्रवेश होगा अनेकान्तवाद भवन में, क्योंकि स्थूलतादि 15 स्वभाव के रहते हुए भी सूक्ष्मता - अणुपरिणाम - वैविध्य एवं परोक्षस्वभावता को कोई हानि नहीं पहुँचती । [ एक-स्थूलाकार को भ्रान्त मानने पर प्रत्यक्षलोपापत्ति ]
यदि कुछ हानि समझ कर, परमाणु में अणुरूपता के त्याग से स्थूलरूपता के प्रवेश को काल्पनिक कहने का साहस करेंगे तो सूक्ष्मपरमाणु साकार प्रत्यक्ष का जनक न हो सकने से प्रत्यक्ष में कुछ भासेगा ही नहीं । स्थूलाकार प्रत्यक्ष के अभाव में, उस के विरोधी स्वभाववाले अणुपरिमाणादि का 20 भी चाक्षुषादिबोध में रसादि की तरह प्रतिभास नहीं हो सकने से, सारा जगत् बाह्यार्थावभासशून्य
बन जायेगा। एक स्थूलाकारग्राहि प्रत्यक्ष को भ्रान्त मानने पर (स्थूल भिन्न आकारग्राहि किसी अभ्रान्त प्रत्यक्ष की हस्ती न होने से ) 'कल्पनामुक्त अभ्रान्त' लक्षणवाले प्रत्यक्ष का ही लोप हो जायेगा। प्रत्यक्ष का लोप होने पर, तदाधारित सकल अन्य प्रमाणों की भी गति न हो पाने से बाह्य- अन्तर किसी भी प्रमेय का निश्चय नहीं हो सकेगा, फलतः किसी वस्तु का स्वीकार या प्रतिकार अशक्य बन 25 जाने से पूरा जगत् व्यवहारशून्य हो जायेगा ।
[ भिन्न भिन्न परमाणुओं में पूर्वापर अनुवृत्ति का समर्थन ]
अत एव क्षणिक स्थितिधर्मी बाह्य अभ्यन्तरस्वरूप अन्योन्यभिन्न परमाणुरूप वस्तु में अंशत: अनुवृत्ति (= एकत्व) का भी स्वीकार करना ही पडेगा । अन्यथा, परमाणु प्रतिभास - अयोग्य होने से प्रतिभासलोप प्रसंग खडा होगा। प्रतिभास यदि मानना है तो परस्परभिन्नांशवाले उपादान कार्यो में प्रत्यक्षगृहीत कुछ 30 अनुवृत्ति भी स्वीकारनी ही होगी । बौद्धवादी कल्पनाज्ञान अथवा भ्रान्तबोध में स्वसंवेदन की अपेक्षा निर्विल्पता एवं अभ्रान्तता, विषय की अपेक्षा विकल्परूपता और भ्रान्तता इस प्रकार परस्परविरुद्ध दो आकारों में अंशतः अभेद का जब स्वीकार करता है तो प्रत्यक्षसिद्ध पूर्वापर हेतु-फलक्षणों में अंशतः
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