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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ ____अथ वर्तमानार्थावभासिनाऽध्यक्षेण न प्राक्तनक्षणभाविनोऽर्थस्य जनकत्वनिश्चयः, तस्यानुमानगम्यत्वात् तेन ज्ञानोदयात् प्रागर्थप्रतिपत्तिरनुमानफलम् जनकत्वात् ज्ञानसत्तात: प्राग्भावो विषयस्यान्यकारणस्येव इति कथमनुमानबाधा वर्तमानावभासिनाऽध्यक्षेणेत्युच्यते। असदेतत्- यतो न जनकत्वमनुमानगम्यम् तस्याऽध्यक्षविषयत्वे तत्प्रतिबद्धत्वेनैव लिङ्गस्याऽनिश्चयादनुमानगम्यताऽपि न भवेत् तत् कुतो ज्ञानार्थव्यतिरिक्तस्यापि वस्तुनो जनकत्वमनुमीयेत ? तत् मानसाध्यक्षगम्यमूहाख्यप्रमाणगम्यं वाऽभ्युपगन्तव्यम् । यच्च ‘जनकत्वात् कार्यसत्तातः पूर्वं कारणसत्तेत्यनुमानगम्यत्वं जनकस्य' इत्युक्तम् (१९७-१९) तदपि परिहतमेव, यतः एका भावावगमपूर्विका चक्रमूर्द्धव्यवस्थितघटप्रतिपत्तिः अपरा प्रदीपव्यापारप्रभवा तदनवगमपूर्विका, यया स्वविषयपरिच्छेद एवं क्रियते – 'न सम्प्रत्येवायं भाव अपि तु प्रागासीत्' इति, अतीते च क्षणेऽक्षव्यापारः शतादिप्रतीत्या
प्रदर्शितः। 10 यदपि 'न गृह्यमाणस्य ज्ञानसमानसमयस्य जनकता, जनकस्य च क्षणिकत्वेन वर्तमानतयाऽतीतस्य
[ जनकत्वनिश्चायक प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमान ? ] शंका :- वर्तमानक्षणभासक प्रत्यक्ष से पूर्वक्षणभावी अर्थ में जनकता का निश्चय कर नहीं सकता, क्योंकि जनकत्व अनुमानगोचर है। अतः ज्ञानोदयपूर्ववर्त्तिक्षण की वर्तमान में प्रतीति तो अनुमान का
ही फल है, तथा विषय की ज्ञानोत्पत्तिपूर्वकालीनता का पता भी जनकत्व हेतु से ही हो सकता है 15 जो धूमोत्पत्तिपूर्वकालीनता अग्नि में जनकत्व हेतु से ज्ञात होती है। इस स्थिति में, वर्तमानरूप से भासमान प्रत्यक्ष से अनुमान को बाधा कैसे पहुँचेगी ?
उत्तर :- शंका गलत है। जनकत्व अनुमान गोचर नहीं हो सकता, क्योंकि वह प्रत्यक्षगोचर नहीं होगा तो तदविनाभावि किसी लिंग का भी निश्चय न होने से अनुमानगोचरता भी नहीं होगी। तब,
ज्ञानविषय की तो ठीक अन्य किसी वस्तु में भी जनकता का अनुमान कैसे होगा ? अतः जनकत्व 20 को मानसप्रत्यक्षगोचर या ऊहसंज्ञक प्रमाणगोचर मान लेना पडेगा। अभी जो यह कहा (१९७-१९) 'कार्यसत्ता से कारण की पूर्वसत्ता जनकत्व हेतु द्वारा जनक में अनुमान से गृहीत होगी – उसका भी निरसन हो गया, क्योंकि दृष्टा को पहले पदार्थबोधपूर्वक कुलाल चक्र पर रहे हुए घट की प्रतीति होती है, फिर कुम्हार जब चक्र पर से घट को नीचे उतार लेता है, अन्धेरे किसी खण्ड में रख
देता है, बाद में प्रदीपप्रकाश से चक्र विनिर्मुक्त ऐसी प्रतीति होती है जिस से अपने विषय का भान 25 इस प्रकार के उल्लेखपूर्वक होता है - 'यह भाव सिर्फ वर्तमान में ही नहीं - पहले भी मौजूद
था।' इस प्रकार अतीतकालीनता का बोध होता है। पहले शतसंख्याज्ञान के उदाहरण से यह दिखाया है कि अतीत अर्थ के प्रति भी इन्द्रियव्यापार शक्य है।
[ ज्ञानमात्र का विषय आरोपित मानने पर आपत्तियाँ ] यह जो कहा जाय कि - ‘गृह्यमाण पूर्वक्षणभाव यदि ज्ञान का समानकालीन होगा तो उसमें 30 ज्ञानजनकता नहीं रहेगी। ज्ञान क्षण में उस के जनक पूर्वक्षण का वर्तमानरूप से प्रतिभास भी शक्य
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