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खण्ड-३, गाथा-६
१७९ ब्रह्मणश्चैकत्वादेकस्य मुक्तौ सर्वेषां मुक्तिप्रसंग: अमुक्तौ वैकस्य सर्वेषाममुक्तिप्रसक्तिश्चाऽनिर्वाया। न चात्मज्योतीरूपत्वेऽयोग्यवस्थायां किञ्चिदस्य प्रमाणं प्रसाधकमस्ति। यथा हि ज्ञानं स्वसंवेदनप्रसिद्ध प्रकाशात्मतया नैवं शब्दः सर्वसंविदि संवेद्यत इति प्रदर्शितम्। अथ अयोग्यवस्थायां ब्रह्मणो नात्मप्रकाशताऽङ्गीक्रियते: नन्वेवमपि प्रागविद्यमान(1)ऽयोग्यवस्थायां सा प्रादुर्भवतीति सुस्थितं तस्य नित्यत्वम् !!। निराकृतश्च पुरुषाद्वैतवादः प्रागिति समानन्यायत्वादयमपि तथैव निराकर्त्तव्य इत्यलमतिप्रसङ्गेन। 5
यद्यपि 'अभेदेन संकेतकरणं शब्दार्थयोस्ताद्रूप्यं स्थापयति' इत्युच्यते (१७०-३) तदप्ययुक्तम्, न हि ‘अयं घटः' इति घटशब्दस्य घटार्थता (तदर्थस्य वा) घटशब्दता प्रकाश्यते, किन्तु ‘अयं घटशब्दवाच्यः घटार्थवाचको वा' इत्ययमत्राः प्रकाशयितुमभिप्रेतः । अन्यथा प्रत्यक्षप्रतीतिबाधितार्थप्रकाशकत्वेन इदमुन्मत्तकवचनवदनादरणीयं स्यात् । शब्दार्थयोश्च तादात्म्ये क्षुराऽग्निमोदकादिशब्दोच्चारणे आस्यपाटन-दहनपूरणादिप्रसक्तिः अनवगतसमयस्याभिधानोपलब्धौ तदर्थस्य अर्थोपलब्धौ च तद्वाचकस्यावगतिप्रसक्तिश्च, 10 मुक्तिप्राप्ति होती है - इस प्रकार बन्ध-मोक्षव्यवस्था सही ढंग से होती है। एक स्वरूप नि की पृथक् पृथक् दो अवस्था का सम्भव न होने से ब्रह्मवादिमत में संसार-मोक्ष की सही व्यवस्था शक्य नहीं है। सभी जीवों में ब्रह्माभेदप्रयुक्त अभेद होने से ब्रह्म एक होने के कारण एक जीव की मुक्ति होने पर सभी जीवों की मुक्ति प्रसक्त होगी। अथवा एक जीव अमुक्त रहेगा तो तदभिन्न सर्व जीव अमुक्त रह जायेंगे। इन दोषों का निवारण नहीं होगा।
15 [ आत्मज्योतिस्फरणरूप ब्रह्म का कोई साधक नहीं । __ यह कहा था कि – 'ब्रह्म आत्मज्योतिरूप स्फुरित होता है' - लेकिन अयोगीअवस्था में उस का साधक कोई प्रमाण नहीं है। जैसे प्रकाशात्मकरूप से ज्ञान स्वसंवेदनसिद्ध है उस तरह प्रत्येक संवेदन में शब्द का अन्वय संविदित नहीं होता – यह पहले (३८४-७) कह दिया है। आप कहेंगे कि अयोगीअवस्था में ब्रह्म की प्रकाशात्मकता हम नहीं मानते - वाह वाह, पूर्व (अयोगी) अवस्था में जो प्रकाशात्मकता 20 नहीं है वह बाद में योगी-अवस्था में उत्पन्न होती है फिर भी ब्रह्म या ब्रह्म की प्रकाशरूपता नित्य है, सुंदर व्यवस्था बनाई। याद कर लो, हमने पहले पुरुषाद्वैतवाद का निरसन कर दिया है, समान युक्तियों से उसी तरह यह शब्दाद्वैतवाद भी निरस्त हो जाता है। अधिक चर्चा से विश्राम ।
[ अभेदभावकृतसंकेतशब्दार्थतादात्म्य असिद्ध ] यह जो कहा था (१७०-१८) – 'यह घट है' इस प्रकार अभेदभाव से किया गया संकेत, शब्द- 25 अर्थ के तादात्म्य को प्रस्थापित करता है' - वह अयक्त है। 'अयं घटा' ऐसे उल्लेख का तात्पर्य : की घटरूपता अथवा घट की घटशब्दता को विषय नहीं करता, किन्तु यह (अर्थ) घटशब्दवाच्य है, अथवा यह (घट) शब्द घटरूप अर्थ का वाचक है इतना ही द्योतन करता है। यदि घटशब्द से अभेदात्मक घटार्थ का ही द्योतन मानेंगे तो अभेद सिद्ध नहीं किन्तु बाधित होने से वह प्रत्यक्षज्ञानबाधित अर्थ : का प्रकाशन करने के कारण पागल नर के वचन की तरह अनादरपात्र बनेगा।
यदि शब्द-अर्थ का अभेद होगा तो ‘अस्त्र' बोलने से जिह्वाछेद, ‘अग्नि' बोलने से जलन और 'लड्डु' बोलने से पूरा मुख भर जायेगा। तथा, जिस को संकेतज्ञान नहीं उस को नाममात्रश्रवण होने
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