________________
खण्ड-३, गाथा-६
१८३ न ह्यभेदे उपलक्ष्य-उपलक्षकभाव उपपन्नः। नापि भिन्नदेश-काल-चेतनाऽचेतन-मुक्तादिविभागो न्यायानुगतो भवेदिति सर्वत्र सद्भावाऽसद्भावरूपतया प्रवर्त्तमानत्वात् द्रव्यधर्मसद्भावादेकत्वाध्यवसायकृतमेव तस्या द्रव्यार्थत्वमिति द्रव्यार्थिकनिक्षेपः स्थापना।
[ द्रव्यार्थिक नय स्वीकृत-द्रव्यनिक्षेप व्याख्या ] द्रवति = अतीताऽनागतपर्यायानधिकरणत्वेनाऽविचलितरूपं स(त्)गच्छति - इति द्रव्यम् । तच्च भूत- 5 भाविपर्यायकारणत्वात् चेतनमचेतनं वाऽनुपचरितमेव द्रव्यार्थिकनिक्षेपः ।
[ विस्तरेण क्षणभङ्गवादनिरसनम् ] न च प्रतिक्षणविशरारुतया भावानां नित्यताऽसम्भवाद् न द्रव्यार्थिकनिक्षेपः सत्य इति वक्तव्यम्, निरन्वयनाशितायां प्रमाणाऽनवतारात् । तथाहि- अध्यक्षम् अनुमानं वा तद्ग्राहित्वेन प्रवर्तते ना(?)न्यस्य प्रमाणत्वेन सौगतैरनभ्युपगमात् ? न तावदध्यक्ष क्षणक्षयितां भावानामवगमयितुमलम् प्रतिक्षणमुदयापवर्ग- 10 संसर्गितया भावानां तत्राऽप्रतिभासनात्। न हि प्रतिक्षणं त्रुट्यद्रूपतां बिभ्राणाः पदार्थमात्रास्तत्रावभान्ति फलसिद्धि रुक जायेगी। ५, मुख्य देवता के उद्देश्य से उसकी मूर्ति के सामने द्रव्यादि अर्पण करने के शिष्ट व्यवहारों का लोप भी प्रसक्त होगा। - इस तरह से सोचे तो स्थापना भी मुख्यपदार्थरूप ही है, उस की द्रव्यार्थता भी अक्षुण्ण है। अत एव यह द्रव्यार्थिकनिक्षेप है।
अगर कोई स्थापना और मुख्य का वास्तव एकत्व न माने तो आखिर तत्त्वाध्यवसाय के द्वारा 15 भी एकत्व द्रव्यार्थिक को मंजूर है। वास्तव एकत्व न मानने के कारण - १, यह मुख्य और यह प्रतिनिधि - इस विभाग का लोप प्रसक्त होगा। तथा २, मूर्ति आदि के द्वारा मुख्य पदार्थ उपलक्षित होता है इस तथ्य का सर्वथा एकत्व पक्ष में लोप प्रसक्त होगा। ३, अभेदपक्ष में एक (मूर्ति आदि) उपलक्षक (पहेचान कराने वाला), दूसरा उपलक्ष्य (जिस की पहेचान करायी जाती है) ऐसा भेदभाव संगत नहीं हो पायेगा। ४, मुख्य वस्तु के देश, काल और स्थापना (प्रतिनिधि) के देश-काल में भेद 20 है, मुख्य देवतादि सचेतन हैं मूर्ति-चित्रादि अचेतन हैं,परमात्मा मुक्त है - उन की मूर्ति-चित्रादि अमुक्त है - इत्यादि जो न्याययुक्त विभाग है वह लुप्त हो जायेगा। तथा, मुख्य पदार्थ तो ‘सद्भूत' एक ही प्रकारवाला होता है, स्थापना तो सर्वत्र सद्भूत (यानी तुल्याकार जैसे मूर्ति आदि), असद्भूत (अतुल्याकार जैसे अक्ष-शंखादि) दोनों प्रकार से प्रवृत्त होती है। स्थापना के ये जो लक्षण कहे गये वे सब द्रव्य में घट सकते हैं अतः मुख्य और द्रव्यभूत स्थापना ‘एकत्व' अध्यवसायकृत द्रव्यार्थत्व 25 ही होता है यह मानना उचित ही है। यह द्रव्यार्थिक मान्य स्थापना निक्षेप का परिचय हुआ। अब द्रव्यनिक्षेप का परिचय कराया जाता है -
[ द्रव्यार्थिकनयमान्य द्रव्यनिक्षेपव्याख्या ] 'टुं गतौ' द्रुधातु गत्यर्थक है। द्रवति = गच्छति । द्रुधातु से 'द्रव्य' शब्द बना है। शब्दार्थः- अतीतअनागत पर्यायों का वास्तविक आश्रय न बन कर जो अविचलितस्वरूप की ओर गमन (प्रत्यर्पण) 30 करता है वह 'द्रव्य' है। यद्यपि वह अतीत-अनागत पर्यायों का आश्रय नहीं है किन्तु कारण जरूर है, वह चेतन-अचेतन दोनों प्रकार में हैं, जैन परिभाषा में भूत-भावि पर्यायों के कारण को द्रव्य कहा
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org