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खण्ड-३, गाथा-६ निश्चित इत्युक्तत्वात् । अहेतुकत्वेऽपि च नाशस्य जन्मान्त(नन्त)रभावित्वं नित्यस्यापि प्राक्प्रतिपादितत्वात्। न च पावकोष्णत्वदृष्टान्तस्तत्र संभवी, प्रथमक्षणेऽपि भावध्वंसप्रसक्तेः तद्वदेवेत्यग्न्या(?त्यग्रे)प्यभिहितत्वात्। न च क्षणावस्थितिलक्षणस्य विनाशस्य तदैवेष्टत्वाददोषः, कालान्तरस्थायित्वस्यापि स्वभावत एव सम्भवाद् विशेषाभावात् । तथाहि एतदपि वक्तुं शक्यम् – कालान्तरस्थायी स्वहेतोरेव भाव उत्पन्नः न तद्भावे भावान्तरमपेक्षतेऽग्निरे(रि)वोष्णत्वे इति किं न स्वत एव स्थिरस्वभावो भावो भवेत् ? न चैवं कौटस्थ्यप्रसङ्ग: 5 क्षणिकपक्षेऽप्यस्य समानत्वात्।।
तथाहि- क्षणमपि स्वरसतः एव स्थास्नो: कल्पान्तरस्थायित्वमपि किं न भवेत् ? अन्यथा अग्निरिव शैत्ये न क्षणमपि स्वयमस्थास्नोः स्थायिता युक्तिमती। विनाशहेतुपक्षनिक्षिप्तश्च विकल्पो भावोत्पत्तिहेतावपि समानः। तस्या(?था)हि - उत्पत्तिहेतुः स्वभावत एव भावमुत्पित्सुमुत्पादयति, आहोस्विदनुत्पित्सुम् ? प्रथमपक्षे विफलता तद्धे तोः। द्वितीयपक्षेऽप्यनुत्पित्सोरुत्पादने वियत्कुसुमादेरप्युत्पादनप्रसङ्गः। 10 स्वहेतुसन्निधेरेवोत्पित्सोरुत्पादनाभ्युपगमे विनाशहेतुसंनिधानाद् विनाशहेतुर्विनश्वरं विनाशयतीत्यभ्युपगमनीयम् का निश्चय शक्य नहीं यह पहले कह दिया है। नाश को निर्हेतुक मानने पर भी, पदार्थ युग युगान्त तक (चिरकालजीवी) यानी नित्य हो सकता है - यह भी पहले कहा जा चुका है। (?) अग्नि की उष्णता का उदाहरण प्रस्तुत में अप्रस्तुत है, अग्नि की उष्णता की तरह क्षण का नाश क्षण के साथ समानक्षणवृत्ति होने पर प्रथम क्षण में ही भाव के ध्वंस की आपत्ति होगी, यह पहले कह दिया है। यदि कहें कि - 'क्षणिकस्थितिस्वरूप 15 विनाश क्षणकाल में इष्ट ही है, दोष नहीं है।' - तो यह गलत है क्योंकि ऐसे तो स्वभावतः ही वस्तु को कालान्तरस्थायी होने की सम्भावना में भी दोष नहीं है। स्वभाव युक्ति तो दोनों ओर तुल्य है।
देखिये - आप के बयान से विरुद्ध यह भी कह सकते हैं - भाव अपने हेतुओं से कालान्तरस्थायिस्वभाववाला ही निष्पन्न होता है। उस के लिये किसी भावान्तर की अपेक्षा नहीं होती. जैसे अग्नि की उष्णता को। अब बोलो कि भाव स्वतः ही स्थिरस्वभाव क्यों नहीं होगा ? यहाँ ऐसा मानने पर कूटस्थ नित्यता की 20 आपत्ति निरवकाश है क्योंकि क्षणिकवाद में भी वैसी आपत्ति सावकाश हो सकती है।
[ भाव का युगान्तरस्थायी स्वभाव निर्बाध ] कैसे यह देखो - अपने स्वभाव से क्षण यदि क्षणमात्रस्थायी होता है तो वैसे ही क्षण (यानी भाव) युगान्तरस्थायी अपने स्वभाव से क्यों नहीं होगा ? यदि अग्नि में जैसे शीतलता नहीं होती वैसे भाव में यदि स्वभाव से स्थिरता नहीं होगी तो एक क्षण के लिये भी भाव स्थिर कैसे रह 25 पायेगा ? विनाशहेतु के निरसन के लिये आपने जो विनाशस्वभाव - अविनाशस्वभाव के विकल्प किये हैं वे तो भावोत्पत्तिहेतु के निरसन में भी समान हैं। देखिये - उत्पत्ति का हेतु किसे उत्पन्न करता है ? स्वभावतः उत्पत्तिसज्ज भाव को या उत्पत्ति के लिए अनभिमुख भाव को ? पहले पक्ष में हेतु निष्फल है क्योंकि वह भाव तो अपने स्वभाव से ही उत्पन्न होनेवाला है। दूसरे पक्ष में जो स्वयं उत्पत्ति सज्ज नहीं है, उस को भी यदि हेतु उत्पन्न करेगा तो गगनपुष्प को भी उत्पन्न 30 क्यों नहीं करेगा ? यदि स्वहेतुसांनिध्य में उत्पत्तिसज्ज को उत्पत्तिहेतु उत्पन्न करेगा ऐसा कहा जाय तो हम भी कह सकते हैं कि विनाशहेतुसंनिधि में विनाशसज्ज भाव को विनाशहेतु विनष्ट करता है, युक्ति इस प्रकार दोनों ओर समान है। जो अपने स्वभाव से ही उत्पत्तिसज्ज है उस के प्रति
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