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गाथा - ६
तस्माद् विनाशहेतुव्यापारनन्तरां (? रं) पदार्थस्याऽसद्व्यवहारं विदधता तद्व्यतिरिक्तार्थान्तरग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् न तु तदग्रहणमात्रम् अन्यथा तस्याभावानिश्चये क्न्यादि ( ? क्षणादि) व्यवहितस्य सद्व्यवहारनिषेध एव स्यात् नाऽसद्व्यवहारप्रवर्त्तनम् यतो न कश्चिदभावाऽनिश्चये तत्स्वरूपाऽग्रहणे वानुपलब्ध्योर्विशेषः येनैकत्राऽसद्व्यवहारप्रवृत्तिः अन्यत्र सद्व्यवहारनिषेधमात्रात् (?त्रम्) । किञ्च भावोत्पत्तेः प्राग्भावस्याऽभावनिश्चय (?ये) तदुत्पादकारणोपादानं कुर्वन्त उपलभ्यन्ते प्रेक्षापूर्वकारिणः; तदुत्पत्तौ च निवृत्त - 5 व्यापारा विनाशकहेतुव्यापारान्तरं च स्वरूपातिरिक्तं पदार्थान्तरमवगत्य शत्रुध्वंसे सुखभाजो मित्रप्रक्षये तु दुःखानुषक्ता उपलभ्यन्ते । न च मित्रसद्भावो दुःखहेतुः प्रतीतः, नापि शत्रुसद्भावः सुखजनक इति तद्व्यतिरिक्तोऽभावस्तज्जनको ऽभ्युपगन्तव्यः । न च मित्राऽमित्राभावे (च?) न दुःख-सुखे, विहितोत्तरत्वात् । न चाभावस्य भवितृत्वे भावरूपता, अभावप्रत्ययविषयत्वेन भवितृत्वेऽप्यभावरूपत्वात् । यथा हि भवितृत्वेनाऽविशेषेऽपि घट-पटयोस्तत्प्रतीतिविषयत्वेन तद्रूपता तथा भावाऽभावयोरपि तद्विषयत्वात् तद्रूपत्वे 10 [ 'असत्' व्यवहार तो साथ अर्थान्तरग्रहण अनिवार्य ]
यही कारण है कि विनाशहेतुव्यापार के उत्तरक्षण में पदार्थ के प्रति 'असत्' व्यवहार करनेवाले को यह भी स्वीकारना चाहिये कि भावनाश के बाद उस भाव से भिन्न किसी अन्य अर्थ का ग्रहण भी होता है न कि पूर्वभाव का अग्रहणमात्र । अन्यथा, अग्रहणमात्र से उस भाव के अभाव का निश्चय न होने से क्षणादिव्यवधान से उस भाव के सत्त्व के व्यवहार का निषेध मात्र होगा किन्तु 'असत्' 15 व्यवहार का प्रवर्त्तन शक्य नहीं होगा । कारण : भाव के अभाव का अनिश्चय और भाव के स्वरूप का अग्रहण, दोनों प्रकार की अनुपलब्धि में खास कोई भेद नहीं है, जिस से कि अभाव का अनिश्चय रहने पर 'असत्' व्यवहार प्रवृत्ति की जा सके और अग्रहणमात्र होने पर सिर्फ 'सद्' व्यवहार का निषेध किया जाय ।
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[ शत्रु-मित्र से अतिरिक्त (ध्वंसरूप) अभाव की स्वीकारापत्ति ]
दूसरी बात :- बुद्धिपूर्वक कार्य करनेवाले को किसी (धूमादि) भाव की उत्पत्ति के पूर्वकाल में जब उस भाव के विरह का निश्चय रहता है तो वे उस के उत्पादक ( अग्नि आदि) कारणों की खोज करते हैं यह दिखता है। जब उस की उत्पत्ति हो जाती है तो फिर उत्पादनक्रिया से उपरत हो जाते है । फिर जब उस ( प्रिय-अप्रिय) भाव के विनाशकहेतु के व्यापार के बाद अन्यपदार्थ (ठिकरे आदि) को जान कर (अप्रिय ) शत्रु का ध्वंस होने पर सुख भोक्ता और ( प्रिय) मित्र का ध्वंस होने 25 पर दुःखभागी होते हैं यह दिखता । न तो मित्र का सद्भाव दुःखहेतु है, न तो शत्रु का सद्भाव सुखहेतु है, अतः सुख या दुःख के हेतुभूत ( शत्रु-मित्र) से अतिरिक्त ही उन के अभाव को सुख-दुःख का जनक मानना पडेगा । 'मित्र के अभाव में दुःख न हो, शत्रु के अभाव में सुख न हो' ऐसा तो बोल नहीं सकते क्योंकि उन के हेतु - हेतुमद्भाव से उत्तर दिया जा चुका है। [ अभाव में भावरूपता की आपत्ति का प्रतिकार ]
यदि कहा जाय भाव का ध्वंसरूप अभाव यदि भविता यानी भवनशील माना जायेगा तो उस में भावरूपता प्रसक्त होगी तो यह गलत है क्योंकि भविता स्वीकारने पर भी वह अभावप्रतीतिविषय होने से अभावरूपता ही माननी होगी । देखिये घट और पट दोनों में भविता
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खण्ड - ३,
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