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खण्ड-३, गाथा-६ पश्यन्ति' इति (१६९-२) तदप्यसङ्गतमेव । यतो यदि योगजे ज्ञाने तस्य व्यापारो भवेत् तदा तत्स्वरूपं योगिनः पश्यन्तीति युक्तं भवेत् । न च तज्ज्ञाने तस्य व्यापार इति प्रतिपादितम् । न च तद्विषयज्ञानोत्पत्त्या योगिनस्तं पश्यन्तीति नाऽस्माभिरभिधीयते - तद्व्यतिरिक्तस्य योगिनस्तज्ज्ञानस्य चाऽभावात् – किन्तु योगित्वावस्थायामात्मज्योतीरूपं स्वत एव तत् प्रकाशत इति ‘योगिनस्तत् पश्यन्ति' इत्युच्यत इति वक्तव्यम्, यतो योग्यवस्थातः प्राग् यदि ब्रह्मणो ज्योतीरूपत्वस्वभावस्तदा सदैवात्मज्योतीरूपत्वात् तस्य न कदाचिद् 5 अयोग्यवस्थेत्ययत्नसिद्धः सर्वेषां मोक्षः स्यात्। न च भवदभिप्रेताऽद्वयसंवेदनचित्राकारपरिग्रहप्रतिभासवदविभागस्याप्यविद्यावशाद् ब्रह्मणोऽविशुद्धसन्ततीनां तथाप्रकाशनम् इति वक्तव्यम्, यतो न तद्व्यतिरेकेणान्येऽविशुद्धसन्ततयो भवदभिप्रायेण सन्ति ते(?ये)षां तथा तत्प्रतिभासः । न च स्वयमेव तथा प्रकाशत इति वक्तव्यम्, मोक्षाभावप्रसङ्गात्, सर्वदैव तस्य तथाप्रकाशात्मकत्वात् ।
अस्मन्मते तु विशुद्धज्ञानान्तरोदयात् मुक्तिर्घटत एव। न च भवन्मतेन तद्व्यतिरेकिणी अविद्या 10 सम्भवति यद्वशात् तथा प्रकाशन इत्युच्यते(?च्येत)। तदव्यतिरेके चाऽविद्यायास्तद्वशात् 'तदेव तथा प्रकाशते' इति वचो जाघटीति। न च ‘अविद्यावशात् तत्तथा ख्याति' इत्यनेन तस्याऽविद्यात्मकत्वमेव आप का उपरोक्त कथन युक्तिसंगत हो सकता है, किन्तु पहले ही हम कह चुके हैं कि नित्य ब्रह्म का किसी भी कार्योत्पत्ति (ज्ञानोत्पत्ति) के प्रति कोई व्यापार हो नही सकता।
ब्रह्मवादी :- हम ऐसा नहीं कहते कि स्वविषयकज्ञानोत्पत्ति के द्वारा योगीजन उस ब्रह्म का दर्शन 15 करते हैं - ‘ऐसा हम बोलेंगे तब तो उस का अर्थ ऐसा निकलेगा कि ऐसे दर्शन से वंचित जन योगी नहीं है और उन को वैसा ब्रह्मज्ञान भी नहीं है। हम तो इतना कहते हैं कि योगिअवस्था में स्वत एव आत्मज्योतिरूप ब्रह्म स्फुरित होता है।" तो यह बोलने जैसा नहीं,
द्वैतवादी :- क्योंकि योगिअवस्था के पूर्व में ब्रह्म में ज्योतीरूप स्वभाव नहीं है ? यदि है तो सदैव स्वयं आत्मज्योतीरूप होने के कारण ब्रह्म से अभिन्न ऐसी कोई अयोगीअवस्था है वहाँ ? फिर 20 तो अनायास ही सभी का मोक्ष हो जायेगा।
ब्रह्मवादी :- आप की जैसे मान्यता है कि किसी एक भाव का संवेदन एक-अखंड होता है फिर भी वह चित्राकार (अनेकाकार) परिग्रहण करके भासित होता है. उसी तरह निर्विभागअखंड ब्रह्म भी अविशुद्धचित्तसंतानवाले को अविद्या के कारण भिन्न भिन्न अवस्थावाला भासित हो सकता है।
__ द्वैतवादी :- यह भी बोलने जैसा नहीं, क्योंकि तब अविद्या के प्रभाव से किसी का मोक्ष ही 25 नहीं होगा, कारण :- नित्य ब्रह्म का सदैव तथाविध प्रकाशरूप ही (अविद्या के कारण भेदप्रकाशन) स्वभाव है।
[ द्वैतवादी के क्षणिकतामत में मोक्षाभावापत्ति नहीं ] हमारा मत :- क्षणिकज्ञान सन्तान में पूर्व ज्ञान क्षणों में अयोगिअवस्था और बाद में योगाभ्यास से उत्तर काल में विशुद्ध ज्ञानक्षणों के उत्पाद से मुक्ति-सिद्धान्त युक्तिसंगत ही है। आप के (ब्रह्मवादी 30 के) मत में द्वैत न होने से ब्रह्म से पृथक् अविद्या का सम्भव ही कहाँ है - जिस से कहा जा सके कि अविद्या के कारण ब्रह्म विविधाकार भासता है ? अविद्या यदि ब्रह्म से अभिन्न अविभक्त हो
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