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खण्ड-३, गाथा-६
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वा संवेदनं भवेदिति प्रेर्यते। तच्चाऽविद्योपहतबुद्धयो नीलादिभेदेन विविक्तमिव (विचित्रमिव) मन्यन्ते। यदुक्तम् - [ ]
यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो मनः। संकीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते ।। तदेव(? थेद)ममृतं (तथेदममलं) ब्रह्म निर्विकारमविद्यया। कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं विवर्तते ।। इति।
न हि नीलादीनामवस्तुरूपत्वादेकदेशत्वप्रसंगः, नापि संवेदनस्याऽभेदः अविद्यारचितत्वात् तद्भेदस्येति 5 श्लोकद्वयाभिप्रायः।
___ अत्र प्रतिविधीयते- प्रमाणाधीना हि प्रमेयव्यवस्था। न चैवंभूतब्रह्मसिद्धये प्रमाणमुपलभ्यते किञ्चित् । तथाहि- न तावत् प्रत्यक्षं तथावस्थितब्रह्मस्वरूपावेदकम् नीलादिव्यतिरेकेण तत्रापरस्य ब्रह्मस्वरूपस्याऽप्रतिभासनात्। अथ ज्ञानात्मरूपवत् स्वसंवेदनस्याध्यक्षत एव शब्दब्रह्म सिद्धम् ज्योतिस्तदेव शब्दात्मत्वाच्चैतन्यरूपत्वाच्चेति प्रतिपाद्यते। असदेतत्- स्वसंवेदनविरुद्धत्वात्। तथाहि- अन्यत्र गतचित्तोऽपि 10 रूपं चक्षुषा वीक्षमाणोऽभिलापाऽसंसृष्टमेव नीलादिप्रत्ययमनुभवतीति विस्तरेण प्रतिपादितमेव सौगतैः नेह प्रदर्श्यते ग्रन्थगौरवभयात्। तेन 'वाग्रूपता चेद् व्युत्क्रामेत्' इत्यादि(ना ?)(वाक्य. १-१२५) तथा न 'सोऽस्ति प्रत्ययो लोके' इति च (वाक्य० १-१२४) प्रत्युक्तं द्रष्टव्यम् । तन्नाध्यक्षतो बाह्येन्द्रियजात् नहीं होता, जिस से कि परिणामरूप नीलादिअभेद से एकदेशीयता की, अथवा नीलादि सभी भावों की ब्रह्माभेदप्रयुक्त एकाकार संवेदन की आपत्ति दी जा सके। हाँ, अविद्या के उपघात से बुद्धिमंत लोग नील- 15 पितादि भेद से ब्रह्म खंडो में विविक्त हो - विभक्त हो ऐसा मान लेते हैं। कहा गया है ( ) -
_ 'तिमिररोगग्रस्त लोगों को विशुद्ध आकाश भी विचित्र मात्राओं (रेखाओं) से हरा-भरा दिखता है - इसी प्रकार निर्मल अमृततुल्य निर्विकार ब्रह्म अविद्या के कारण मलिनताग्रस्त एवं भेदग्रस्त विवर्तन करता है।"
दोनों श्लोकों का तात्पर्य है कि नीलादि कोई वस्तुरूप ही नहीं है अत एकदेशता की आपत्ति 20 नहीं है, संवेदन (ब्रह्म) का नीलादि से अभेद भी नहीं है क्योंकि उस का भेद भी कल्पनारचित है।
[ ब्रह्मसिद्धि के लिये प्रमाणपृच्छा ] ब्रह्मवादप्रतिविधान :- प्रमेय की व्यवस्था प्रमाणाधीन होती है। ब्रह्मवादीस्वीकृत ब्रह्मतत्त्व की सिद्धि के लिये कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। देखिये - प्रत्यक्ष और परोक्ष दो ही प्रमाण है। उन में ब्रह्म के सदैव अविभक्तस्वरूप का प्रत्यक्ष से तनिक भी समर्थन नहीं होता। प्रत्यक्ष ज्ञान में नीलादि 25 भेदों को छोड कर किसी एक अनुगत शब्दब्रह्म स्वरूप का प्रतिभास नहीं होता। यदि कहें - ‘स्वसंवेदन का जैसे ज्ञानात्मकस्वरूप प्रत्यक्ष से सिद्ध है वैसे ही ज्योतिस्वरूप शब्दब्रह्म सिद्ध ही है, वह शब्दात्मक भी है और चैतन्यस्वरूप है।' - तो यह गलत है, क्योंकि स्वसंवेदनविरुद्ध है। कैसे यह देखिये - चित्त कुछ दूसरे विचार में हो तब संमुखवर्ति नीलरूपादि को नेत्र से देखने वाला अभिलापविरहित शुद्ध नीलादिबोध का ही अनुभव करता है - बौद्धमतवाले ने इस तथ्य का विस्तृत निरूपण कर 30 दिया है, ग्रन्थगौरव के भय से यहाँ पुनः निरूपण करना जरूरी नहीं। अत एव बौद्धप्रतिपादन से वह निरस्त हो जाता है जो वाक्यपदीयग्रन्थकार ने श्लो० १/१२४-२५ में कहा है ‘ऐसी कोई प्रतीति
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