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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ अन्यथा तादात्म्याऽयोगात् 'निश्चीयमानाऽनिश्चीयमानयोर्भेदान्निश्चायकं वाध्यक्षं परपक्षे' [ ] इत्युक्तत्वात् । न च यो यत्प्रतिपादकः स तदात्मको धूमक्षा(?माग्न्या)दिभिर्व्यभिचारात्। न च शब्दस्य अर्थविशेषणत्वेन प्रतीतेस्तदात्मकता, देशभेदेन शब्दार्थयोरुपलब्धेः । न च भेदे तस्य तद्व्यवच्छेदकत्वमनुपन्नम्, काकादेभिन्नस्यापि गृहादिकं प्रति व्यवच्छेदकत्वप्रतीतेः। तन्न शुद्धद्रव्यास्तिकाभिमतनामनिक्षेपो युक्तियुक्त इति भावनिक्षेपप्रतिपादकपर्यायास्तिकाभिप्रायः।
[शब्दार्थनित्यसम्बन्धवादिमीमांसकमतनिरसनम् ] अशुद्धद्रव्यास्तिकप्रकृतिव्यवहारनयमतावलम्बिनस्तु मीमांसका भिन्नानेव शब्दार्थसम्बन्धान नित्यानाहुः – ‘औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धः' (मीद०१-१-५) इति वचनात् । ‘औत्पत्तिकः' इति विरुद्धलक्षणया
नित्यस्तैर्व्याख्यातः। नित्यत्वे च सम्बन्धस्य कृतकसम्बन्धवादिनो, येनावगतसम्बन्धेन ‘अयम्' इत्यादिना 10 शब्देनाऽप्रसिद्धसम्बन्धस्य घटादे: सम्बन्धः क्रियते तस्यापि यद्यन्येन प्रसिद्धसम्बन्धेन सम्बन्धः तदा
तस्याप्यने(?न्य)नेति अनवस्थाप्रसक्तिरिति यो दोषः सोऽकृत(क)सम्बन्धवादिनोऽस्मान्न श्लिष्यतीत्ययुक्तवादिन पर अभेदभाव से अर्थ का भान, एवं नाम सुने बिना भी अर्थ को देखने पर नाम का भान प्रसक्त होगा। ऐसा नहीं होगा तो अभेद भी नहीं रहेगा। कहा गया है कि - 'प्रतिवादीपक्ष में,(एक जब)
निश्चित किया जाता है (तब अन्य) अनिश्चित रहता है तो उन दोनों का भेद होने से (आखिर) 15 प्रत्यक्ष ही निश्चायक है।' - जो जिस का निवेदक हो वह तदात्मक नहीं होता, क्योंकि धूम अग्नि
का निवेदक है किन्तु अग्निरूप नहीं - यह व्यभिचार है। अर्थ के विशेषणरूप में प्रतीत होने से शब्द अर्थात्मक नहीं बन जाता, क्योंकि शब्द और अर्थ का देशभेद स्पष्ट दृष्टिगोचर है। - ‘यदि विशेषणभूत शब्द अर्थ से भिन्न होगा तो अर्थ का व्यावर्त्तक नहीं बनेगा।' - ऐसा कथन युक्त नहीं
है, क्योंकि भेद होने पर भी काग गृहादि का व्यावर्त्तक बनता है यह दिखता है। 20 इस से भावनिक्षेपनिवेदकपर्यायास्तिक अभिप्राय स्पष्ट है - शुद्ध द्रव्यास्तिकमान्य नामनिक्षेप यक्तिसंगत नहीं है।
[ अशुद्धद्रव्यास्तिकमतप्रविष्ट मीमांसकनित्यसम्बन्धवादसमीक्षा ] जिनोक्त नयसमुदाय में, शब्दार्थ के संदर्भ में यदि मीमांसक का अवतार ढूँढा जाय तो अशुद्धद्रव्यास्तिक स्वरूपव्यवहारनय मत में मेल बैठता है। शुद्ध द्रव्यास्तिक तो अंतिमसामान्यवादी संग्रह नय है, व्यवहार 25 नय सामान्य का स्वीकार करता है किन्तु लोकव्यवहार के अनुसार आवश्यक विशेषों का भी स्वीकार
करता है अतः उसे यहाँ अशुद्धद्रव्यास्तिकप्रकृति कहा गया है। मीमांसक प्रति अर्थद्रव्य शब्दार्थ सम्बन्ध को सर्वानुगत शब्द सामान्यरूप न मान कर भिन्न भिन्न मानता है - इस तरह भेदवादी होने से उस का अशुद्ध द्रव्यास्तिक में अवतार उचित है। मीमांसक मत यह है कि शब्द-अर्थ का सम्बन्ध
भिन्न भिन्न है एवं नित्य है। यद्यपि मीमांसासत्र (१-१-५) में कहा है कि 'शब्द का अर्थ के साथ 30 सम्बन्ध औत्पत्तिक (= उत्पत्तिशील) है।' (इस में अनित्यता व्यक्त होती है किन्तु) 'औत्पत्तिक' पद
का शक्यार्थ न ले कर 'उत्पत्तिविरोधी' (यानी नित्य) ऐसा लक्ष्यार्थ ग्रहण करना है - ऐसा उस सूत्र के व्याख्याकार का अभिप्राय है। इसे विरुद्धलक्षणा कहते हैं क्योंकि यहाँ उत्पत्तिरूप शक्यार्थ का विरोधी
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