________________
खण्ड-३, गाथा-५
१३५
बोधोऽग्राहकोऽप्रतीतेरेव।
अथवा परोक्षो बोधः पुरोव्यवस्थितार्थान् प्रतिपद्यत इति परेषामभ्युपगमः, तदभ्युपगमानीलकालो बोधात्मा भवतु प्रत्यक्षस्तथापि न तयोर्वेद्यवेदकभावः सहोपलम्भनियमादिति प्रतिपाद्यते तेनायमदोषः। संवेदनं तु प्रत्यक्षरूपं बोधरूपतां नीलसुखादेर्वस्तुस्थित्यैव साधयति, बोधव्यवहारस्य तत्रैव सिद्धः अन्यथाभूतस्यानुपलब्धेस्तस्याऽभावात् ततो नीलादेः सुखादेश्चात्मैवानुभव: चक्षुरादिव्यापारात् परोपि तदा स 5 स्यात् । न च चक्षुरादिव्यापारादेव नीलादयोऽनुभवरूपा जायन्ते यतश्चक्षुरादयोऽपि नानु(भव)व्यतिरिक्ताः सत्य(सन्त्य)र्थवादप्रसक्तेः । नैतदेवम् (?न चेदेवम्-)स्वप्नदशावज्जाग्रद्दशायामपि वासनावशादेव नियहावभासोदयो भविष्यतीति न कार्यव्यतिरेकादप्यर्थवादकल्पना युक्तिमतीति सर्वत्र विज्ञप्तिमात्रतेव।??]
[??ननु यदि विज्ञप्तिमात्रतैवाभ्युपेया तथा सति मेय-मानमिति व्यवहारविलोपः, तस्य भेदपूर्वकत्वात्। अर्थो हि प्रमितिक्रियया व्याप्यमानत्वात् प्रमेयम्, कर्मणि कृत्यविधानात्। तथा नीलादयो यदि बोध: 10 स्यात् तदाऽसौ स्वतन्त्रो नीलदृशं प्रतीत्य प्रमाता भवेत् चक्षुरादयश्च करणतया मानं भवेयु अर्थमितिस्तु(फलम्) ग्राहकभाव नहीं है अतः उन में सहोपलम्भनियम से स्वप्रकाशरूपता सिद्ध कर सकते हैं क्योकि बोध अतिरिक्त अर्थ का कोई ग्राहक नहीं है क्योंकि वैसी प्रतीति नहीं होती।
[ अभ्युपगमवाद से मीमांसकमतानुसार भी विज्ञानमात्रता ] अथवा मीमांसक मतानुसार, संमुखवर्ती अर्थों का बोध परोक्ष माना गया है, तो अभ्युपगमवाद 15 से हम कहते हैं कि बोध नील समानकालीन मान लेंगे, किन्तु उन का वेद्य-वेदकभाव प्रत्यक्ष नहीं है. सहोपलम्भनियम के आधार पर ऐसा कह सकते हैं - इस में तो कोई दोष नहीं है। प्रत्यक्षात्मक जो अर्थसंवेदन है उसी से नीलादि-सुखादि की बोधरूपता वस्तुमर्यादानुसार सिद्ध हो जायेगी क्योंकि नीलादि-सुखादि में ही बोधव्यवहार-प्रवृत्ति प्रसिद्ध है। नीलादिभिन्न में तादृश व्यवहार अनुपलब्ध है, इस लिये उस का असत्पन फलित होता है। अतः नीलादि एवं सुखादि का आत्म स्वरूप ही अनुभव 20 है जो कि उस समय चक्षुआदि व्यापार का अगोचर हो सकता है। ऐसा नहीं है कि - नेत्रादिव्यापार से ही नीलादि अनुभवदशापन्न बनते हैं – क्योंकि विज्ञानवाद में नेत्रादि भी क्या है ? आखिर एक प्रकार का अनुभव। उस से भिन्न मानेंगे तो अर्थवाद प्रसक्त होगा। (यहाँ 'नैतदेवम्' के बदले ‘न चेदेवम्' ऐसा पाठ ठीक लगता है - मतलब) नेत्रादि को अनुभवात्मक न माने, असत् ही मानें, तब तो स्वप्न दशा में जैसे नेत्रादि के विना वासनावश नियत अनुभव होता है वैसे जाग्रद् दशा 25 में भी वासनावश नियत अनुभव का उदय हो जायेगा। निष्कर्ष, ठोस कार्य की साक्षि के विना सिर्फ कल्पना से अर्थवाद का स्वीकार युक्तिसंगत नहीं है। सारांश, विज्ञानमात्रस्वरूप पूरा जगत् है।??)
[विज्ञानवाद में प्रमेयादिव्यवस्था शंका-समाधान ] पूर्वपक्ष :- अगर विज्ञप्तिमात्रता ही मान्य करेंगे तो मान-मेयादि का व्यवहार कैसे घटेगा -- उसका तो लोप प्रसक्त होगा, क्योंकि वह तो भेदमूलक ही होता है। देखिये - प्रमितिक्रिया से व्याप्यमान 30 होने के कारण नीलादि अर्थ 'प्रमेय' होता है, “प्रमेय' शब्द में 'य' प्रत्यय कृत्यप्रत्यय है उस का विधान कर्म (= व्याप्य) में किया गया है। नीलादि यदि बोधरूप होंगे तो स्वतन्त्र होने से वह
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org.