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खण्ड-३, गाथा-५
१४९ (?प्रस)क्तेः । न च तस्य भेदो ज्ञाता(?न)ज्ञानादवसीयते, तस्याप्यप्रतिपन्नभेदस्य तद्भेदाऽव्यवस्थापकत्वादित्याद्यनवस्थाप्रसक्तेः । न च स्वसंवेदनत एव तद्भेदः सिध्यति, तथाभ्युपगमे स्वस्वरूपमात्रपर्यवसितत्वात् तस्य नीलादिभेदव्यवस्थापकत्वानुपपत्तेः।
न च स्वत एव स्तम्भादयो भिन्नरूपाः प्रथन्ते तथाभ्युपगमे स्वसंवेदनरूपतया तेषां अ(स्व)रूपवेदनपर्यवसितत्वेनाऽन्यत्राऽप्रवृत्तेः, परस्पराऽसंवेदनतः कुतः स्वरूपतोऽपि भेदसंवित्तिर्भवेत् ? द्वयरूपाऽसंवेदने 5 तनिष्ठस्याप्यप्रतिपत्तेः । न चाऽपरोक्षे नीलस्वरूप(?पे) पीतमपरमाभाति । तथा (? न चा)पराऽप्रतिभासनमेव भेदवेदनम् यतो नीलस्वरूपस्वसंविदितत्व(?)प्रतिभासनं पीतमस्ति नास्ति वा न शक्यमधिगन्तुम् । नास्तित्वाऽवेदने च कुतः स्वरूपमात्रप्रतिभासनाद् भेदसिद्धिः ? अपि च, स्तम्भादेः स्थूलादवभासिनोऽनेकदिक्सम्बन्धाद् भेदः परमाणुपर्यन्तः पुनस्तत्परमाणूनामपि भेददिक्षट्कसम्बन्धाद् भेदः तत्राप्येवम् इत्यनवस्थानात् न भेदव्यवस्थिते(तिः) एका(?क)रूपाऽव्यवस्थितौ तद्विपर्ययेण भेदव्यवस्थितेरयोगात् ।?? ] 10 उस के लिये एक और ज्ञान ज्ञान का ज्ञान लायेंगे तो अनवस्था दोषप्रसंग होगा। स्वसंवेदन से भी अर्थों का भेद सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मान लेने पर भी वह स्वरूपमात्रसंवेदनतत्पर होने के कारण नीलादिअर्थों के भेद की व्यवस्था अनुपपन्न रहेगी।
[स्वयं नीलादि के भेद का अवभास अशक्य ] __ ऐसा नहीं है कि स्तम्भादि स्वयमेव भेदसहित भासित हो जाय। अगर ऐसा मानेंगे तो वे भी 15 स्वसंवेदनरूप ही बन जायेंगे, फलतः अपने स्वरूपवेदन में व्यग्र रहनेवाले उन की अन्य (भेदादि) के लिये कोई प्रवृत्ति ही नहीं हो सकेगी। उपरांत, एक नीलादि संवेदन या पीतादि एकसंवेदन परस्पर एक-दूसरे का वेदन ही नहीं करते, तब स्वरूप से भी भेदसंवेदन की कथा ही कहाँ ? द्वन्द्व का भान न होने पर उन दोनों के साधारण धर्म का भी प्रवेदन नहीं हो सकता। न तो अपरोक्ष नीलस्वरूप में अपररूप से पीत भासता है (न पीतसंवेदन में अपररूप से नील ।) ऐसा नहीं कि अपर का असंवेदन 20 ही भेदवेदनरूप मान लिया जाय। कारण :- नीलस्वरूप का जब स्वसंविदितत्वप्रतिभास होता है उस वक्त 'पीत है या नहीं' ऐसा अन्वेषण शक्य नहीं है। जब नास्तित्व का वेदन ही नहीं है। सिर्फ नील के अपने स्वरूपमात्र के प्रतिभास से भेद की सिद्धि क्यों कर होगी ?
[एक - स्थूल स्तम्भादि का भी निश्चय अशक्य ] उपरांत, एक और स्थूल दिखनेवाले स्तम्भादि वास्तव में एक और स्थूल नहीं होते, छ या दश 25 दिशाओं के संयोगभेद से उन के अनेक खण्ड स्वीकारने होंगे। एक एक खण्ड के भी विभिन्न दिक्संयोग से अनेक भेद मानने पडेगे। (तर्क यह है कि एक में विरुद्धदिक् संयोग घट नहीं सकता।) इस प्रकार खण्डोपखण्डभेद की शृंखला चलेगी तो आखिर परमाणु ही बचेगा। अरे वह भी नहीं बचेगा, क्योंकि उस में विरुद्ध अनेकदिक्संयोग से भिन्न भिन्न खण्ड, इस से भी आगे भेद...भेद... अनवस्था चलती रहेगी, तब भेद का ही निश्चय लुप्त हो जायेगा। एक स्तम्भादि के या एक परमाणु का 30 भी निश्चय न हो सकेगा तो तव्यावृत्तिरूप से भेद का निश्चय कैसे शक्य होगा ? A. द्विष्ठसम्बन्धसंवित्तिः नैकरूपप्रवेदनात । इति स्मर्त्तव्यम्
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