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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ [नन्वनेन न्यायेन यद्यत्प(?ध्य)क्षावभासिनो नीलादेन भेदः, अभेदस्तु तदा न्यायप्राप्त इत्यद्वैतापत्तेर्न शून्यता। अन्तर्बहिश्च प्रतिभासमानयोः सुखनीलाधोरपह्नोतुमशक्यत्वात् 'प्रतिभासतोऽध्यक्षतः' [ ] इति वचनात्। नैतत् सारम्, यतो नास्माभिरवभासमानस्य नीलादेरवभासशून्यताऽभिधीयते प्रतिभासविरति
लक्षणायास्तस्याः कथञ्चिदप्रतीतेः, अपि तु प्रतिभासोपमत्वं सर्वधर्माणां शून्यत्वम् । उक्तं च– 'प्रतिभासोपमाः 5 सर्वे धर्माः' [ ] इति । प्रतिभासश्च सर्वो भेदाभेदशून्यः । न हि नीलस्वरूपं सुखाद्यात्मकतयाऽभेदरूपमुप
लभ्यते, तद्रूपताऽनुपलम्भे च कथमेकं भवितुं युक्तम् ? न च तस्य भेदाऽवेदनमेवैकत्ववेम(?वे)दनम् एकतो स्वस्वरूपाऽवेदनस्यापि भेदत्वेनाभिधातुं शक्यत्वात्, इति न विशेषः कश्चित् स्व-परपक्षयोः । परस्परपरिहारेण देशास्व(?द्य)भासान्नैकत्वं देशकालाकारैर्जगतः।
न चैकत्ववादिनोऽन्योन्यपरिहारेण देशादीनामुपलम्भोऽसिद्धः परस्परानुप्रवेशोपलम्भस्यापि तेषामसिद्धेः । 10 न च प्रतिभास(?)स्तावदयमस्तीत्यदै(?द्वै)तमस्तु नीलादेर्विचित्रस्य प्रतिभासा(ज)जगतो विचित्रताप्राप्तेः ।
[भेद की असिद्धि से अभेद का साधन अनुचित ] __पूर्वपक्ष :- भवदीय तर्कों के अनुसार प्रत्यक्ष प्रतिभासमान नीलादि में भेद नहीं है, तो उस से विपरीत उन का अभेद न्यायसिद्ध हो गया - क्योंकि भेद-अभेद के अलावा तीसरा कोई विकल्प नहीं,
फलतः अद्वैत का ही समर्थन हुआ, न कि शून्यता का। शून्यता मानी जाय तो भीतर में भासमान 15 सुखादि और बाहर में भासमान नीलादि का निषेध करना पडेगा जो अनुचित है। एक आप्त वचन
है कि 'प्रत्यक्ष से प्रतिभास होने से' - जिस का यह तात्पर्य है कि सभी धर्मों का प्रत्यक्ष से प्रतिभास होता है। उत्तरपक्ष :- कथन असार है, हमारा शून्यतावाद ऐसा नहीं कहता कि अवभासमान नीलादि का अवभास शून्य है (यानी होता ही नहीं।), कभी भी प्रतिभासनास्तित्व रूप शून्यता की प्रतीति
नहीं होती। किन्तु हमारे कथन का भाव यह है कि सर्व धर्म प्रतिभास सदृश होते हैं - यही शून्यता 20 है। एक आप्तवचन में कहा है – 'सभी धर्म प्रतिभासतुल्य हैं।' शून्यता इस लिये कि प्रतिभास,
भेद या अभेद से नितान्तशून्य होता है। देखिये - नील पदार्थ सुखादिआत्मक पदार्थ से अभिन्नतया संविदित नहीं होता। अभिन्नतया संविदित न होने पर कैसे वे दोनों अभिन्न = एक हो सकते हैं ? 'अभिन्नतया यानी एकत्वरूप से संवेदन का मतलब 'भेद का अवेदन' ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि
तब उस " से उलटा, यानी अपने एकत्व = अभेदस्वरूप का अवेदन यही भेद का वेदन' ऐसा भी 25 कहना यक्त मानना होगा। आप के और हमारे दोनों कथन में कोई फर्क दिखानेवाला तर्क नहीं है।
तथा, एक-दूसरे का त्याग कर के (एक-दूसरे का अवगाहन न कर के) देश-कालादि का भी अवभास न होने से, विश्वपदार्थों का देश-काल-आकारों के द्वारा एकत्व निषिद्ध हो जाता है।
[ नैसर्गिक शुद्ध ज्योति की परमार्थसत्ता का निषेध ] ऐसा नहीं कहना कि हमारे एकत्व (= अद्वैत)वाद में परस्परविमुक्ततया देशादि का उपलम्भ असिद्ध 30 है। अरे ! आप के मत से तो उन के परस्परव्यतिषङ्ग का उपलम्भ भी कहाँ सिद्ध है ? यदि कहें
A. भूतपूर्वसम्पादकयुगलेनात्र महायानसूत्रालंकार-शास्त्रवार्तासमुच्चय-स्याद्वादकल्पलताटीकाग्रन्थयुगलादनेकवचनसंदर्भा उद्धृतास्तत एव ज्ञातव्याः। (पृ० ३७१ मध्ये तृतीयखण्डे)
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