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खण्ड - ३, गाथा - ५
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वक्तव्यम्, तस्यानुपलब्धेरेवाभावनिश्चयात् । न च वासनाप्रतिबद्धत्वमनुभवस्य निश्चेतुं शक्यम् प्रत्यक्षस्य पौवापर्येऽप्रवृत्तेर्नान्वयव्यतिरेकनिश्चायकत्वम् तदनिश्चये च न हेतु-फलभावावगतिरध्यक्षात् । नाप्यनुमानम् प्रत्यक्षाभावे तस्याप्यप्रवृत्तेर्न हेतुफलभावः क्वचिदपि सिद्धिमासादयति ।
किञ्च, यदि वासनाप्रबोधप्रभवं नील-सुखादिव्यतिरिक्तं प्रतिपुरुषनियतं संवेदनमनुभूयेत तदा विज्ञानवादो युक्तिसंगतः स्यात्, न च तत्कदाचनाप्युपलब्धिगोचरः । नील-सुखादेस्त्वेकानेकस्वभावाऽयोगात् वासनाजन्यस्यापि 5 परमार्थतोऽसम्भवात् सर्वधर्मशून्यतैव वस्तुबलायाता । नीलाद्यवभासस्य वासनाप्रतिबद्धत्वं संवृत्या शून्यत्वमुच्यते न सर्वसंवेदनाभावः तस्य कदाचिदप्यननुभवात् । न च प्रतिभासे सति कथं शून्यत्वमिति वक्तव्यम् तस्यैकानेकस्वभावाऽयोगतः शून्यतेतिप्रतिपादनात् । उक्तं चाचार्येण (प्र०वा०२-३६० ) -
भावा येन निरूप्यन्ते तद्रूपं नास्ति तत्त्वतः । यस्मादेकमनेकं वा रूपं तेषां न विद्यते ।।' इति । भगवद्भिरप्युक्तम्— 'मायोपमाः सर्वे धर्माः' [ ] इति । तदखिलमेतत् यत् प्रतिभाति तद् द्विचन्द्रादिवत् सकलमसत्यम् ।
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सत्य है' क्योंकि तथाकथित बोध की उपलब्धि न होने से उस का अभाव ही निश्चित होता है । उपरांत, बोध यानी अनुभव में वासना की मिलावट भी ( यानी अशुद्धि भी) प्रत्यक्ष या अनुमान से निश्चित करना अशक्य है। पूर्व में वासना, उत्तर में ज्ञान यहाँ इन का पूर्वापरभाव प्रत्यक्ष से गृहीत न होने से ज्ञान के साथ वासना का अन्वयव्यतिरेक गृहीत हो नहीं सकता । उस का निश्चय 15 ( ग्रहण ) न होने पर वासना - ज्ञान के कारण कार्यभाव का भी प्रत्यक्ष से भान नहीं हो सकता । तथा, अनुमान तो प्रत्यक्ष के बिना प्रवर्त्तन के लिये पंगु है, अतः किसी भी तरह वासना - ज्ञान का कारण - कार्यभाव सिद्ध नहीं होता ।
[ सर्व धर्म मायाजाल है ]
उपरांत, विज्ञानवाद को तब युक्ति संगत मान लेते यदि वासनाप्रबोधप्रेरित तत्तत् पुरुष के साथ 20 नियत नील-सुखादि से पृथक् ( स्वतन्त्र) कोई संवेदन अनुभवसिद्ध होता, अरे ! वह तो कभी भी उपलब्धिगोचर होता नहीं। बाह्य नील-सुखादि में अथवा नील-सुखादिप्रतिभास में एकता - अनेकता के स्वभावविकल्पों में एक भी घट नहीं सकता, वासनाजन्य माने फिर भी परमार्थ से उस की संभावना शक्य नहीं, अतः वास्तविक प्रमाणबल से तो सर्व धर्मों की शून्यता ही फलित होती है। इस शून्यता का मतलब सर्वसंवेदनाभाव नहीं है किन्तु वासनागर्भित नीलादिअवभास काल्पनिक होने से शून्यता 25 कही गयी है । सर्वसंवेदना का अभावरूप इस लिए नहीं कि उस का कभी अनुभव नहीं होता। ऐसा मत कहना कि 'प्रतिभास होता है तो शून्यता कैसे ?' प्रतिभास में एकस्वभाव / अनेक स्वभाव की संगति नहीं होती इस लिये शून्यता का निरूपण किया जाता है । धर्मकीर्त्ति आचार्य ने ( प्र०वा० ३६०) कहा है 'जिस रूप से भावों का प्रतिभास होता है वह तात्त्विक नहीं, क्योंकि उन का एक या
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. प्रमाणवार्त्तिक-मनोरथनन्दिटीकायाम् - तस्माद् भावा ग्राह्यादयो येन रूपेण ग्राह्यत्वादिना निरूप्यन्ते = अनुभूयन्ते तद्रूपं तत्त्वतस्तेषां नास्ति । यस्मादेकं रूपमनेकञ्च रूपं तेषां न विद्यते । वस्तु भवदेकमनेकं वा स्यात् । न च ग्राह्याद्यभाव एकोऽनेको वा युक्तः । तस्मादुपप्लव एवायम् ।।
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