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खण्ड - ३, गाथा - ५
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बाह्यार्थव्यवस्थार्थवादिनो युक्तिमती, शून्यवादिनोऽपि तत्प्रसिद्धेनैव तेन शून्यताव्यवस्थाया न्यायप्राप्तत्वात् । तथाहि-- तस्यापि साधनादिभेदव्यवहारो लोकप्रसिद्धः प्रागासीत्, तेन यदि शून्यता व्यवस्थाप्यते न तेन कश्चिद् दोषः 'गतोदके कः खलु सेतुबन्धः ' [ ] इति न्यायात् । उक्तं चाचार्येण 'सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारः सांवृतः” । [ इत्यादि । ततः सांवृता अनुमानगम्या शून्यता ।
यद्वा नीलादीनां प्रतिभासमानानां यत् कल्पितमेकत्वादिरूपं तस्याऽप्रतिभासादेव निषेधः । न हि 5 व्यवहारबलादप्रतिभासमानमेकत्वादिकं रूपं कल्पयितुं युक्तम् प्रतिभासव्यतिरेकेण व्यवहारस्याप्ययोगात्। ततो बाह्यमाध्यत्मिकं वा रूपं न तत्त्वम् किन्तु सांवृतमेव । संवृतिश्च त्रिधा सुगतसुतप्रसिद्धा - ( १ ) लोकसंवृतिर्मरीचिकादिषु जलभ्रान्तिरेका, (२) तत्त्वसंवृत्तिः सत्यनीलादिप्रतीतिर्द्वितीया, (३) अभिसमयसंवृतिर्योगिप्रतिपत्तिस्तृतीया, योगिप्रतीतेरपि ग्राह्य - ग्राहकाकारतायाः प्रवृत्तेः । उक्तं च भगवद्भिः 'कतमत् संवृतसत्त्वं अन्य लोगों के अप्रामाणिकमत मात्र के आधार से कोई अर्थसिद्धि शक्य नहीं । यदि अर्थवादी को कल्पित 10 साधनादि भेद से बाह्यार्थव्यवस्था करना इष्ट है तो हम उसे न्यायोचित मानते हैं और तब हमारे शून्यवादीयों की ओर से भी कल्पित साधनादि से शून्यता की सिद्धि न्यायोचित ही है । देखिये शून्यवादीमत से भी, परापूर्व से जो लोकप्रसिद्ध ( किन्तु कल्पित ) साधनादिभेद व्यवहार चलता था चलता आया है उसी का उपयोग कर के यदि शून्यता की सिद्धि की जाती है तो इस में कोई दोष नहीं है ।
जान लिजिये कि एक बार शून्यता सिद्ध हो जाने पर, उत्तरकाल में आप के युक्तिप्रहार से साधनादि भेद समाप्त हो जाय तो हमें कोई आपत्ति नहीं है ( अपि तु इष्टापत्ति है) क्योंकि वह तो पानी बह जाने पर पालीबन्ध करने की चेष्टा है । (यानी अर्थवादरूप जल बह जाने पर आप शून्यवादभंगरूप पाली बन्ध करते ही रहिये । तकलीफ नहीं। हमारे आचार्य ने यही कहा है 'पूरा ही अनुमान - अनुमेय व्यवहार जूठा है।' इत्यादि । अत एव अनुमानसिद्ध शून्यता को भी आप अर्थ 20 की तरह काल्पनिक कहें तो मंजूर है।
अथवा, इस तरह शून्यता जान सकते हैं
[ शुद्धतर पर्यायवादी ऋजुसूत्र मत से सर्वं शून्यम् ] प्रतिभासमान नीलादि का एकत्वादिरूप कल्पित है उस का प्रतिभास नहीं होने से वह निषेधपात्र है । अप्रतिभासमान एकत्वादि रूप, सिर्फ एकत्वादिव्यवहार के आधार पर सत्य मान लेना उचित नहीं । प्रतिभास के न होने पर व्यवहार भी अकिंचित्कर है । 25 सारांश, बाह्य अथवा अभ्यन्तर नीलादि या सुखादि कोई भी रूप तात्त्विक नहीं है, सांवृत यानी अविद्या = कल्पना (= संवृति) शिल्प है । बुद्धमतानुयायीओं में संवृत्ति के तीन प्रकार कहे गये हैं (9) लोकसंवृत्ति जिस से मरुमरीचिका में जलभ्रान्ति होती है । (२) तत्त्वसंवृति जिस से नीलादि बाह्य में सत्यत्व प्रतीति होती है, (३) अभिसमय संवृति जिस से योगीगण को आध्यात्मिक ( = अभ्यन्तर) अनुभूतियाँ होती है, लेकिन वह भी कल्पनाशिल्प इस लिये है कि उन की अनुभूतियाँ ग्राह्य-ग्राहकाकार 30 से प्रवृत्त रहती है, ग्राह्य-ग्राहकभाव आकार सत्य नहीं है । भगवंतोंने 'संवृतिसत्त्व कितने हैं ?' इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि लौकिकव्यवहार पर्यन्त ( सब काल्पनिक है ।) । इस तरह निश्चित हुआ
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