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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
न चात्रैतत् प्रेरणीयम् - दृष्टान्त - दान्तिकभेदाभावे द्विचन्द्रादिनिदर्शनेन नीलाद्यवभासस्याऽसत्यता न साधयितुं शक्या । न ह्यसतो निदर्शनसंगतिः । भेदे वा नाऽसत्यता भवेद् भावानाम् । पक्षदृष्टान्तयोर्हि भेदः सत्यत्वे सति भवति, असतः शशविषाणादेरिव भेदानुपपत्तेः । तथा, साधनस्यास्तित्वे न शून्यता, नास्तित्वे न साध्यप्रतिपत्तिः । एवं वादि-प्रतिवादिप्राश्निकानामभावे न वादः सम्भवी । तत्सद्भावे च न 5 शून्यता । आह च भट्टः (श्लो० वा० निरा० श्लो० १२८-१२९)
'सर्वदा सदुपायानां वादमार्गः प्रवर्त्तते ।। अधिकारोऽनुपायत्वात् न वादे शून्यवादिनः । । इति' यतो यदि पारमार्थिकदृष्टान्त - दान्तिकादिभेदाद् वादमार्गप्रप्रवृत्तिः, परस्याप्यसौ कथं भवेत् ? न हि परमार्थतो भावभेदः प्रत्यक्षतोऽधिगन्तुं शक्यस्तदभावात्, नानुमानादपीति प्रतिपादितम् । न च परस्याभ्युपगमात् साधनादिभेदसिद्धेः तत्प्रवृत्तिः, अप्रमाणकाभ्युपगममात्रादर्थासिद्धेः कल्पितात्तु साधनादिप्रविभागाद् 10 अनेक रूप विद्यमान नहीं ।' भगवन्त ने भी कहा है सभी धर्म मायाजाल है।' अतः जो कुछ सब यह भासित होता है वह चन्द्रयुगल की भाँति सब मिथ्या है। [ साधनादि उपायविहीन शून्यवादी का वाद में अनधिकार
पूर्वपक्ष ]
यहाँ ऐसा प्रतिवाद नहीं उठाना :- भेद को जब आप ( शून्यतावादी) असत् कहते हैं, तब तो दृष्टान्त दृष्टान्तसाध्य दोनों का भेद न होने से, चन्द्रयुगल के दृष्टान्त से नीलादिप्रतिभास की असत्यता 15 की सिद्धि अशक्य है । असत् को दृष्टान्त नहीं किया जाता। यदि भेद सिद्ध मानेगें तो भावों की असत्यता प्रसिद्ध नहीं हो सकती । सत्यता होने पर ही पक्ष और दृष्टान्त का भेद संगत हो सकता है । शशशृंगादि की तरह वे यदि असत् तो उन में भेदसंगति नहीं हो सकती । तदुपरांत, शून्यता की सिद्धि जिस साधन से की जाती है वह यदि सत् है तो शून्यता कैसे ? यदि असत् है तब उस से शून्यता-साध्य की सिद्धि नहीं होगी । एवमेव वादी प्रतिवादी - सभासद् आदि कुछ नहीं है तो 20 शून्यतासाधक वाद भी सम्भवित नहीं । यदि वादी... सब सत् हैं तो शून्यता कैसे ? श्लोकवार्त्तिक (निरा० श्लो० १२८-१२९ उत्त० ) में कुमारिलभट्ट कहते हैं।
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'सद्भूत उपाय (हेतु आदि) के होने पर वादमार्ग प्रवृत्त होता है, शून्यवादी के पास कोई ( सद्भूत) उपाय न होने से उन का बाद में अधिकार ही नहीं है ।'
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[ साधनादिउपायवाले अर्थवादी का अनधिकार
उत्तरपक्ष ]
अर्थवादी के उपरोक्त प्रतिवाद का निषेध करते हुए शून्यवादी अर्थवादी को पूछता है कि (अब तक आप का अर्थवाद भेदादि सिद्ध नहीं हुआ इस स्थिति में) वास्तव दृष्टान्त एवं पक्ष के भेद का अवलम्ब लेकर आप की भी वादमार्ग में प्रवृत्ति कैसे सुसंगत हो सकती है ? पहले जो हमने कहा है परमार्थ से तो, कोई भावभेद प्रत्यक्ष से सिद्ध करना शक्य है, क्योंकि तथाविध प्रत्यक्ष की सत्ता नहीं है, न अनुमान से सिद्ध है । ( जब भावभेद असिद्ध है तो साधनादि भी असिद्ध होने
30 से अर्थवादी कैसे वाद करेगा ? ) यदि कहें कि 'शून्यवादी अनेक बार साधनादि का प्रयोग करते अन्य लोग (विज्ञानवादी आदि) भी करते हैं, अतः करिबन अन्य सब लोगों को उस में सम्मति होने से साधनादिभेद सिद्ध हो जाता है, अतः वादप्रवृत्ति निर्बाध शक्य है ।' तो यह गलत है,
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