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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
तस्य चोक्तदोषत्वात् । ततो न परमाणुषु कथञ्चित् स्थूलरूपतासम्भवः । न चान्यादृगवभासोऽन्यादृशस्यार्थस्य ग्राहक : नीलदृशोऽपि पीतग्राहकतापत्तेः नियतव्यवस्थाविलोपश्चैवं प्रसज्यते ।
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अपि च, नानादिक्सम्बन्धात् परमाणोरप्येकता असंगतैव । आह चाचार्यः षट्केन युगपद्ययोगात् परमाणोः षडंशता । [ ] इति । तदंशानामपि नानादिक्सम्बन्धात् पुनः सांशतापत्तेरनवस्थाप्रसक्तिः इति न परमाणुसद्भावः। न चार्थाभावे नियतदेश- कालाकारः प्रतिभासो न भवेत्; वासनाबलेन तथाभूतप्रतिभासस्य स्वप्नदशायामुपलब्धेः जाग्रदशायामपि तद्बलेनैव तदुदयसद्भावात् अर्थस्तु स्वरूपेण न क्वचित् सिद्धः । नापि प्रतिभासनियामकत्वेनेति नार्थवादो युक्तिसंगतः । न च वासनाबलान्नियताकारं ज्ञानमेव सदस्तु न शून्यतेति वक्तव्यम् यतो नीलादिरूपं ज्ञानमप्येकानेकरूपमयुक्तम् । तथाहि - तस्यापि दिग्भेदान्नैकता अर्थवत् युक्ता प्रतिभासभेदाच्च । नापि नीलादिज्ञानं परमाणुरूपम् ज्ञानपरमाणूनामपि दिक्षट्कयोगात् सांशता10 पत्तेरनेकप्रतिपत्तेरयोगाच्चोक्तप्रायम् । न च बहिरवभासमानो नीलादिर्वितथः बोधस्तु परिशुद्धोऽवितथ इति
किसी भी तरह स्थूलता का सम्भव नहीं है । कभी एक प्रकार का दर्शनावभास अन्य प्रकार के अर्थ का ग्राहक नहीं हो सकता, अन्यथा नीलग्राहि दर्शन में पीतग्राहकता की आपत्ति होगी, परिणामतः प्रतिनियत ( यह पीतग्राहि है यह नीलग्राहि ऐसी ) व्यवस्था भंगापन्न हो जायेगी ।
[ परमाणु में षड्विक्संयोग से सांशता आपत्ति ]
विविध दिशासम्बन्ध के कारण परमाणु में भी एकत्व
और एक बातः संगत नहीं है। आचार्य ने कहा है 'एक साथ छः दिशा के संयोग से परमाणु में छ अंशभाव (प्रसक्त है ) । ' तथा उन छ अंशों में भी छ दिशासम्बन्ध से पुनः पुनः सांशत्व प्रसक्त होने से आखिर अनवस्था दोष होगा । अतः परमाणुसत्ता असिद्ध है ।
प्रश्न : अर्थ के बिना नियतदेश नियतकालीनता नियताकार प्रतिभास कैसे होगा ? उत्तर :20 स्वप्नदशा में अर्थ के बिना भी वासना के प्रभाव से नियताकार प्रतिभास दिखता है, तो वासना के ही प्रभाव से नियताकार प्रतिभास का जागृति दशा में भी उदय हो सकता है, कहीं भी स्वरूप से अर्थ की सिद्धि नहीं होती ।
प्रश्न :- अर्थ नहीं होगा तो प्रतिभास का नियम कैसे सिद्ध होगा ?
उत्तर :- वह भी वासनाबल से संभवित है, अतः अर्थवाद युक्तिसंगत नहीं है। यदि कहें कि 25 'आखिर वासनाबल से नियताकार ज्ञान की तो सत्ता माननी होगी, तो शून्यता कैसे सिद्ध होगी ?'
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ऐसा नहीं है, क्योंकि अवयवी जैसे सिद्ध नहीं होता वैसे एकानेक विकल्पों के प्रहारभय से नीलादिस्वरूप ज्ञान भी युक्तिसिद्ध नहीं होता। देखिये- ज्ञान में भी अर्थ की तरह दिशाभेद के कारण षडंशता प्रसक्त होने से तथा प्रतिभासभेद के कारण एकत्व सिद्ध नहीं हो सकता । नीलादि ज्ञानपरमाणु की मान्यता भी जूठी है क्योंकि ज्ञानपरमाणुओं में भी दिशाभेद से सांशता आपत्ति खडी है, तथा अनेकरूपता 30 भी भासित नहीं हो सकती यह करीब पहले कह दिया था ।
[ अर्थ की तरह बोध भी असत् है ]
ऐसा मत कहना कि 'बाह्य प्रतिभासमान अर्थ भले मिथ्या हो, परिशुद्ध भासमान बोध तो
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