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खण्ड-३, गाथा-५ न च बहिर्नीलादेरेकानेक(?)रूपतया युक्ता(?क्त्या)नुपपत्तेः प्रकृतिपरिशुद्धं ज्योतिर्मात्रं परमार्थसदस्तु, तथाभूतज्योतिर्मात्रस्य कदाचनाप्यप्रतिपत्तेरसत्त्वात् सर्वधर्मशून्यतैव सिद्धिमा(स)साद (पि नगमान्?)। यदि प्रतिभासनाद् ज्योतेरवगम्यमाननीलादिवद् ग्राह्योल्लेखभूतेपि सत्यसत्यात्वनीलादेरपि मधावभासितेः सत्यत्वप्रशक्तित्वात्। न च विद्याविरचितप्रतिभासविषयत्वाज्ज्योतिषः सत्येतरस्य तु विपर्ययादसत्यतेति वाच्यम्, कल्पना(?न)याऽस्यापि रचयितुं शक्यत्वात्।
5 __ यदि प्रतिभासस्सत्या(?उ)च्यते इति न्यायात् प्रतिभासवपुषां नीलादीनां कथमसत्यं(त्य?त्वमुक्तम् तत्रापि प्रतिभासात् सत्यत्वं स्वप्नप्रतिभासिनोऽपि तस्य सत्यत्वप्रसक्तिः । न च स्वप्नदशायामपि ज्ञानस्वरूपतया नीलादेः सत्यत्वाद् जाग्रहशायामपि तथैव सत्येति विज्ञप्तिमात्रं न शून्यतेति वक्तव्यम् ज्ञानरूपतया प्रसक्तेनीलादेरप्रतिभासनात् । न ह्यन्यतरस्यापि दशायां प्रकृतिपरिशुद्धान्तस्तत्त्वज्ञानरूपतया तेषां सर्वदावभासनात् । न च बहीरूपतयाऽवकाशादन्तस्तत्त्वं भवितुमर्हति अन्तरारूपतया सुखादेव भासमानबहीरूपतया प्रसक्तेः। 10 कि – 'आखिर प्रतिभास तो सत् है अतः शून्यता नहीं प्रतिभासाद्वैत मान लो !' – नहीं नीलादि प्रतिभास कोई एक किस्म का नहीं होता, वह भी चित्रविचित्र होता है, अगर प्रतिभास मानेंगे तो विचित्रताहेतु जगद्वैचित्र्य भी गले पडेगा। यदि कहा जाय - ‘बाह्य नीलादि जगत् युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि वह एक है या अनेक – एक भी विकल्प घटता नहीं, अत एव नैसर्गिक विशुद्ध ज्योतिर्मय वस्तु ही पारमार्थिक सत् माना जाय' – नहीं, भवत्कथित ज्योतिर्मय वस्तु का कभी अनुभव न होने 15 से वह असत् है, फलतः सर्वधर्मशून्यता ही सिद्धिसदन आरोहण कर सकती है, (सिद्धिमासादपिऽनकामात् पाठ अशुद्ध है, सिद्धिमासादयत्यनागमाद्यप्रतिभासनाज्योतेः - ऐसा कोई पाठ हो सकता है। क्योंकि ज्योति न तो आगमगम्य है न प्रतिभासित होती है। ज्ञायमान नीलादि की तरह वहाँ ग्राह्य पदार्थ का उल्लेख यद्यपि होता है किन्तु (सत्यासत्यत्व के बदले 'असत्य' पाठ हो सकता है।) असत्य नीलादि का भी मध्यमावभासन के जरिये नीलादि में भी सत्यत्व की प्रसक्ति होगी। यह कहना कि – 'नीलादि 20 तो अविद्याप्रयुक्त प्रतिभास का विषय होने से असत्य है, जब कि ज्योति तो विद्याप्रयुक्त प्रतिभास का विषय होने से सत्य है' – ठीक नहीं, ज्योति भी अविद्या यानी कल्पना से प्रयुक्त प्रतिभास का ही विषय है। ज्योतिप्रतिभास की रचना के लिये अविद्या शक्तिशाली है।
[विज्ञानवाद तत्त्वभूत नहीं है ] ___ यदि आप प्रतिभास को सत्य कहेंगे तो प्रतिभासारूढ पिण्डात्मक नीलादि को असत्य क्यों कर 25 कहेंगे ? यदि उन्हें भी सत्य मानेंगे तो स्वप्न में प्रतिभासी नीलादि को भी सत्य मानना पडेगा। ऐसा कहना – ‘स्वप्नदशादृष्ट नीलादि बाह्यरूपता से नहीं किन्तु ज्ञानरूपता से ही सत्य मानेंगे, एवं जागृति में भी ज्ञानरूपता से ही नीलादि को सत्य मानते हैं। मतलब, विज्ञानमात्र वस्तु सिद्ध होती है, शून्यता नहीं' – निषेधार्ह है, क्योंकि नीलादि भी ज्ञानरूपतापन्न बन जाने पर बाह्यरूप नीलादि का प्रतिभास ही लुप्त हो जायेगा। जो बाह्यरूपता से प्रतीत होते हैं उन को अन्तस्तत्त्वस्वरूप मानना 30 अयुक्त है, अन्यथा अन्तस्तत्त्वता से भासमान सुखादि को बाह्यरूपतापन्न मानने की मुसीबत आयेगी।
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