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गाथा - ५ सर्वं (? म) सत्यम् प्रतिभासमानस्याऽसत्ताऽयोगात् । दृष्टान्तासिद्धितो न सर्वभावाभावः प्रतिभासमानस्य स्तम्भादेरे-कानेकरूपतयाऽव्यवस्थितेः । तथाहि -
(न) कालभेदाद् भिन्नोऽध्यक्षतः प्रतिपत्तुं शक्यम् ( ? : ) - सन्निहिते एव तस्य वृत्तेः । न हि मृत्पिण्डस्वरूपग्राह्यध्यक्षं तदाऽसंनिहितं घटमुपलभते, तदनुपलम्भे च न तदपेक्षया तेन स्वविषयस्य भेदोऽधिगन्तुं शक्यः, प्रति (पादि ? ) योगिग्रहणमन्तरेण ततो भिन्नमि ( त्य) नधिगतेः । नापि घटस्वरूपग्राहिणा तेन मृत्पिण्डात् भेदोऽ- 5 धिगम्यते, तत्स्वरूपाऽग्रहणे तस्याऽप्रवृत्तेः । न च स्मरणमपि भेदाऽधिगमे प्रभु, अध्यक्षे (क्ष) गृहीते एवार्थे तस्य व्यावृत्तेः ( ? पृतेः) । न वाध्यक्षमेतद्ग्रहणक्षमम् इति प्रतिपादितत्वात् । न स्मरणमर्थग्रहणे प्रभवति, तस्य स्वरूपमात्रपर्यवसितत्वात् । तत एव स्मरणसहायमप्यवा ( ? ध्य) क्षं न भेदग्रहणे पटु । न पूर्वरूपाऽग्रहणमेव ततो भेदवेदनम् तद्ग्रहणस्य व्यवस्थापयितुमशक्तेः । न च तत्स्वरूपमेव भेद इति तद्ग्रहणात् सोपि गृहीतः, कोई विशेष फर्क नहीं है, जिस से कि एक का विषय सत्य, दूसरे का असत्य माना जा सके। मतलब, 10 संवाद से भी अर्थ की सत्यता फलित नहीं होती। जागृति दशा में जो प्रतिभासित होता है उस को सत्य माना जाय तो स्वप्नदशा में जो अनुभूत होता है उन सभी को असत्य मानना उचित नहीं है, क्योंकि जो प्रतिभासित या अनुभूत होता है उस में असत्ता को अवकाश नहीं रहता । ( मतलब, जागृतिदशा में भासमान अर्थ भी स्वप्नदशावत् असत् ही मानना चाहिये, उस को असत् मानने में ) कोई दृष्टान्त नहीं है ऐसा नहीं है, ( स्वप्नदशा का दृष्टान्त है ।) अतः अर्थवादी के सभी भाव का अभाव ही फलित होता है, क्योंकि प्रतिभासमान स्तम्भादि एक है भिन्न है या अभिन्न एक भी विकल्प से उस की कोई व्यवस्था शक्य नहीं है नहीं है । क्यों ? सुनिये
माने हुए स्तम्भादि 15 या अनेक, यानी यानी कोई आधार
खण्ड - ३
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[ अर्थों में कालभेदप्रयुक्त भेद सम्भव नहीं ]
अब शून्यतावादी शून्यता सिद्धि के लिये प्रथम सर्वप्रकार के भेद का उन्मूलन करता है कालभेद 20 प्रयुक्त अर्थभेद (अर्थों का अन्योन्य भेद) प्रत्यक्ष प्रमाण से जानना शक्य नहीं है, क्योंकि संनिहित पदार्थ में ही प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होती है ( अर्थ में तदितरभेद तिरोहित होता है ।) मिट्टीपिण्ड का ग्राहक प्रत्यक्ष उस वक्त दूरवर्ती घट को जान नहीं सकता। जब उस का ज्ञान शक्य नहीं, तो घट की अपेक्षा प्रत्यक्ष के द्वारा अपने विषय में घटभेद का अवबोध नहीं हो सकता । मिट्टीपिंडग्राहि प्रत्यक्ष से भेदप्रतियोगी घट का ग्रहण न होने से मिट्टीपिंड घट से भिन्न है ऐसा भान अशक्य है। तथैव, घटस्वरूपग्राहि प्रत्यक्ष 25 से मृत्पिण्डप्रतियोगिक भेद का ग्रहण भी शक्य नहीं है, मिट्टीपिण्डस्वरूप के अग्राहक प्रत्यक्ष की उस के भेद के ग्रहणार्थ प्रवृत्ति नहीं हो सकती । स्मरण भी इस भेद के ग्रहण में सक्षम नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षागृहीत विषय में स्मरण की प्रवृत्ति (= व्यापार ) नहीं होती, प्रत्यक्ष तो उस के ग्रहण में समर्थ नहीं यह तो अभी कह दिया है। प्रत्यक्ष निरपेक्ष स्मरण स्वयं अर्थ ( या भेद) का ग्रहण करने लग जाय यह भी सम्भव नहीं, क्योंकि स्मरण तो अपने स्वरूपग्रहण में ही तत्पर रहता है न कि अर्थ 30 ग्रहण में । इसी लिये तो ( स्मरण अर्थग्राहक न होने के कारण ) स्मरणसहकृत प्रत्यक्ष भी भेदग्रहण में सक्षम हो नहीं पाता ।
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