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खण्ड-३, गाथा-५
१३९ ऋजुसूत्रः। स हि माध्यमिकदर्शनावलम्बी सर्वभावनैवात्मा(नैरात्म्य)प्रतिपादनाय प्रमाणयति- यद् विशददर्शनावभासि न तत् परमार्थसह्य(?व्य)वहतिमवतरति यथा तिमिरपरिकरितदृगवभासि इन्दुद्वयम् विशददर्शनावभासिनश्च स्तम्भ-कुम्भादयः, प्रतिभासाऽविशेषात्। अथापि युक्तं यत् तैमिरिकावभासिनश्चन्द्रद्वयादयो न परमार्थसन्तः, तत्र कारणदोषाद्वा बाधोदयाद्वा । परिशुद्धदृगविशेषा(?भासा)स्त्वेकेन्दुमण्डलादयो न वितथाः, तत्र कारणदोषविरहाद् बाधाभावात्वे(?द्वे) त्यसिद्धः प्रतिभासाऽविशेषा(?:)। असदेतत्, बाध्यत्वायोगात्। तथाहि न विज्ञानस्य 5 तत्कालभाविस्वरूपं वाच्य(?बाध्य)ते, तदानीं तस्य स्वरूपेण प्रतिभासनात् । नाप्युत्तरकालम्, क्षणिकत्वेन तस्य स्वयमेवोत्तरकाल(म)भावात् । नापि प्रमेयं प्रतिभासमानेन रूपेण बाध्यते, तस्य विशदप्रतिभासादेवाभावाऽसिद्धेः। नाप्यप्रतिभासमानरूपत्वात्, तस्याप्यभावे वारिणा स्पर्शादिलक्षणेन प्रतिभासनारूपात् तस्यान्यत्वात्। न चान्याभावेऽन्यस्याभावोऽतिप्रसङ्गात् । ____नापि प्रवृत्तिरुत्पन्ना बाध्यते, उत्पन्नत्वादेवाऽसत्तायोगात् तस्याः। नाप्यनुत्पन्ना, स्वत एवाऽसत्त्वात्। 10 भी शून्यरूप ही है। इसी को कहते हैं ऋजु)। ऐसा एक बौद्धमत में वादी है जो मध्यमप्रतिपदामत का अवलम्बन कर के सर्वभावों की निःस्वरूपता (= नैरात्म्य) का निरूपण - स्थापन करने के लिये प्रमाण प्रस्तुत करता है -
__ जो स्पष्टदर्शन से भासमान होता है वह परमार्थतः ‘सत्' (= यह सत्य है) ऐसे व्यवहार का पात्र नहीं होता। उदा० तिमिररोगग्रस्तदृष्टि से भासमान चन्द्रयुगल । स्तम्भ-कुम्भादि भी स्पष्टदर्शनावभासी 15 हैं, चन्द्रयुगलावभास और स्तम्भादि के अवभास में कोई फर्क नहीं है।
पूर्वपक्षी :- तिमिररोगग्रस्तनेत्र से भासमान चन्द्रयुगलादि परमार्थ सत् नहीं है - यह तो युक्त ही है। कारण :- वहाँ सदोष कारण होते हैं या तो बाधबुद्धि का आक्रमण होता है। किन्तु शुद्ध निर्दोषदृष्टि से भासमान एक चन्द्रमण्डलादि पदार्थ मिथ्या नहीं होते, क्योंकि न तो वहाँ कारण दूषित हैं न तो बाध है। अतः 'प्रतिभास में फर्क नहीं' यह निवेदन अयुक्त है।
त्तरपक्षी :- यह कथन गलत है। चन्द्रयुगलदर्शन में कोई बाध को अवकाश नहीं। बोलिये कि बाध कैसे होता है ? - क्या चन्द्रयुगल विज्ञान का स्वकालवर्तिस्वरूप बाधित होता है ? नहीं, अरे वह तो अपने स्पष्ट स्वरूप से ही भासित होता है। क्या स्वोत्तरकाल में बाध उदित होता है ? नहीं, क्षणिक विज्ञान स्वयमेव उत्तरकाल में नहीं रहा, फिर बाध किस का ? क्या जिस रूप से वह भासित होता है उस रूप से उस का प्रमेय (= विषय) बाध का शिकार बनता है ? नहीं, उस 25 रूप से तो उस प्रमेय का स्पष्ट अवभास होता है, अतः उस का अभाव असिद्ध है। यदि अप्रतिभासमानरूप से उस का अभाव मानेंगे तो वारि (? वायु) का स्पर्शादि रूप से, जो कि वायु के स्व स्वरूप से अन्य है, उस रूप से प्रतिभास न होने से उस का भी बाध मानना पडेगा। कभी ऐसा नहीं देखा कि एक रूप से जो सत् नहीं होता वह अन्य रूप से भी असत् ही हो। अन्यथा अग्नि का जलत्वरूप से प्रतिभास न होने पर, अग्नित्वरूप से भी अभाव - अतिप्रसंग होगा।
[ मिथ्याज्ञानोत्पन्न प्रवृत्ति का बाध असम्भव ] प्रवृत्ति जो उत्पन्न हो गयी उस का बाध भी नहीं हो सकता, जो एक बार उत्पन्न हो गया
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