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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ किं यथानित्या(?थान्येना)ङ्गुल्यग्रेणाङ्गुल्यग्रं न संस्पृश्यते उत (यथा) तेनैव ? तत्राद्ये पक्षे सिद्धसाध्यता, न हि यथाऽन्येनाङ्गुल्यग्रेणाऽन्यदगुल्यग्रं संस्पृश्यते तत्संस्पर्शः संभवी । अथ द्वितीयः पक्षः सोऽप्यनुपपन्नः, तेन तत्संस्पर्श(स्य) न्यायप्राप्तत्वात्। न हि स्वरूपव्यतिरेकेणाङ्गुल्यग्रसम्भवः । न च स्वरूपमात्मानं न
संस्पृशति तथाभ्युपगमे स्वरूपहानिप्रसक्तेः, नीलादीनां त्वपरोक्षप्रकाशस्वभावता स्वरूपमेव अन्यथा तेषां 5 (अ)परोक्षताऽभावप्रसङ्गादिति प्रतिपादितत्वात्। तत् व्यवस्थितमेतत् नीलादयोऽपरोक्षस्वभावाः प्रकाशन्त
इति विज्ञप्तिमात्रकमेवेदं बहिरर्थसंस्पर्शरहितम्। तदपि विज्ञप्तिमात्रं पूर्वापरस्वभावविविक्तमध्यक्षणरूपं स्वसंवेदनाध्यक्षतः तथैव प्रतिपत्तेः, पौर्वापर्ये प्रमाणा(त् ?)ऽप्रवृत्तेः प्रतिपादनादिति क्षणिकविज्ञप्तिमात्रावलम्बी शुद्धपर्यायास्ति(क)भेद ऋजुसूत्रः ??]
__ [ऋजुसूत्रनयान्यव्याख्यया शून्यवादनिरूपणम् ] 10 [??यद्वा एकत्वानेकत्वसमस्तधर्मकलापविकलतया तदपि विज्ञानं शून्यरूपम् = ऋजु सूत्रयतीति
रहते हैं वैसा यहाँ भी अनादिवासनामूलक भेदविकल्प जान लेना। यह जो कहा था – विरोध के कारण संवदेन अभेदसाधन नहीं कर सकता - (स्वात्मनि क्रियाविरोध होता है)। उंगलीअग्रभाग स्वयं स्व का स्पर्श नहीं कर सकता। (१३६-१६) तो यह असार है क्योंकि यहाँ अनुभव का अपना स्वरूप
ही अपरोक्षता है, उस के लिये कोई क्रिया की नहीं जाती फिर उस में विरोध कैसे ? तथा विरोध 15 के खातिर जो दृष्टान्त दिया है उंगलीअग्रभाग का उंगलीअग्रभाग से स्पर्श नहीं हो सकता। उस पर
प्रश्न हैं कि अन्य अंगुलीअग्र से स्पर्श नहीं होता या उसी अंगुलीअग्र से ? प्रथम पक्ष में सिद्ध को ही आप साध्य कर रहे हैं जो दोष है क्योंकि जैसे एक अंगुलीअग्र से अन्यअंगुलीअग्र का स्पर्श नहीं होता, वैसा संस्पर्श संभव ही नहीं है। दूसरे पक्ष में भी असंगति है क्योंकि स्व से स्व का स्पर्श
युक्तिसंगत है - कैसे यह देख लो - अंगुलीअग्र तो अंगुली का स्वरूप ही है उस से भिन्न नहीं 20 है। वस्तु है और वह अपने स्वरूप को स्पर्श न कर सके ऐसा कभी नहीं हो सकता। अगर वैसा
मानेंगे तो अपने स्वरूप के स्पर्श से (यानी स्वरूप से) रहित वस्तु अपने स्वरूप को ही खो बैठेगी। नीलादि का स्वरूप है अपरोक्ष प्रकाशस्वभावता, अगर इस को स्वरूप नहीं मानेंगे तो नीलादि में अपरोक्षप्रकाशस्वभावता का अभाव ही प्रसक्त होगा, यह पहले कहा जा चुका है।
[शद्धपर्यायास्तिकप्रकारभत ऋजसत्र नय विज्ञानमात्रग्राही 1 25 निष्कर्ष :- नीलादि अपरोक्षस्वभावरूप से प्रकाशशील हैं अतः यह पूरा विश्व बाह्यार्थवार्तामुक्त
विज्ञानमात्रस्वरूप ही है। यह जो विज्ञान है वह भी अस्थायि यानी पूर्वोत्तरक्षणस्वभाव से अस्पृष्ट मध्यक्षणमात्रवृत्ति है क्योंकि स्वसंवेदनअध्यक्ष से वैसा ही संविदित होता है। किसी भी संवेदन क्षण को पूर्व या उत्तर क्षण का संसर्ग प्रमाणसिद्ध नहीं ऐसा हम कई बार कह चुके हैं - इस समग्र विज्ञानवादचर्चा से फलित होता है शुद्धपर्यायास्तिक का प्रकाररूप ऋजुसूत्रनय केवल क्षणिक विज्ञानमात्रस्पर्शी होता है।
[अन्यप्रकार से व्याख्या के द्वारा ऋजुसूत्रनय का शून्यवादसमर्थन ] व्याख्याकार अभयदेवसूरिजी कहते हैं कि - ऋजु का सूत्रण करे वह ऋजुसूत्रनय । यहाँ ऋजु की व्याख्या ऐसी कर सकते हैं → एकत्व-अनेकत्वादि सर्वगुणधर्मो से शून्य होने के कारण वह विज्ञान
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