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खण्ड-३, गाथा-५
१३७
यथा स्वरूपमेयं स्वसंवित् फलमित्यस्ति प्रमाणादिव्यवस्थेत्यर्थः श्लोकद्वयस्य। [ ]
तत्रात्मनि सुखादीनां यथा वित्तिः फलं तरं। तथा सर्वत्र संयोज्या मान-मेय-फलस्थितिः।।
अत्राप्यनुभवात्मत्वाद् योग्यास्ता: संविदः इति। सा योग्यता मानं मेयं रूपं फलं स्ववि(?संविदि) त्याचार्योक्तस्य यदि तर्हि नीलादीनां स्वप्रकाशो वित्तिश्च कथं 'नीलमहं वेद्मि' इति कर्तृ-कर्म-क्रियाभेदोल्लेख: ? यथात्मनि सुखादी चामा(?त्मादेर)त्राप्यहमात्मानं वेद्मि सुखादीनि वासौ दृष्ट एव। अथान्यग्राहकाभावात् 5 तत्रासौ मिथ्योल्लेखस्तर्हि नीलादावपि व्यतिरिक्तप्रकाशाभावात् (अ)भेदोऽवसेयः कर्तृ-कर्मादितया मिथ्यो(?थ्य)वाऽपरोक्षस्य नीलादेरेव प्रकाशनात् । __अथाऽस्याः कर्म-कर्तृ-क्रियाभेदाध्यवसिते/जं वक्तव्यम्, निर्बीजं (क्)वाऽन्य(?प्य)योगात्। नैव, तत् क्वचिदपि कादिभेदस्य वास्तवस्यानुपलब्धेवा(?)ति परम्परामात्रं अनादिवासनाप्रभवप्रधानादिविकल्पवदसावभ्युपगन्तव्यः । यदपि विरोधान्न संवेदनं भवत्यंगुल्यग्रवत् (१३६-३) - इत्युक्तम्- तदसारम्, यतोऽपरोक्षं 10 स्वरूपं स्वानुभवः तत् कुतोऽत्र विरोध: ? तथा, 'अमुल्यग्रमपि तेनैवाङ्गुल्यग्रेण न संस्पृश्यते' इत्यत्रापि "गया है कि नीलादि जडरूप नहीं है, क्योंकि संवेदनरूप होता है वह जड नहीं होता। अत एव ऐसा जो भेदोल्लेख होता है कि वह संविद् 'नीलादि का प्रकाश' ऐसी संज्ञायुक्त है, वह जैसे 'स्वसंविद् का यह मेयस्वरूप' ऐसा भेदोल्लेख होता है तथा यह मेय है यह फल है इत्यादि । इस तरह विज्ञानवाद में प्रमाणादि व्यवस्था होती है। शास्त्रकारोक्त दो श्लोकों का यह भावार्थ है। उन में से एक श्लोक 15 का अर्थ :- 'यहाँ (विज्ञानवाद में) आत्मा में सुखादि का वेदन फल-परक है वैसे सभी (नीलादि) में मान-मेय-फल की व्यवस्था जोड लेना ।।” यहाँ एक ही संविद में मान-मेयादि की व्यवस्था का मूल है उन संविदों की योग्यता (= यानी सामर्थ्य) क्योंकि संविद् अनुभवात्मक होती है। यह जो योग्यता है वह मानादि की अभेदभाव से व्यवस्था करती है' - ऐसा तात्पर्य यदि आचार्यकथन का माना जाय तो प्रश्न खडा होगा कि नीलादि का स्वप्रकाश ही वेदन स्वरूप है तो मैं नील को जानता हूँ' - 20 इस प्रकार कर्तृ(= मैं) - कर्म(= नील) - क्रिया (= जानता हूँ)' भेदोल्लेख कैसे संगत होगा ? - इस का उत्तर है जैसे सुखादि और आत्मा में होता है वैसे यहाँ (मैं नील को जानता हूँ) भी होगा। 'मैं आत्मा को जानता हूँ' यहाँ, तथा ‘सुखादि मैं भोगता हूँ' यहाँ एक ही आत्मा या एक ही सुखादि के बारे में कर्तृ-कर्म-क्रियाओं का भेदोल्लेख दृष्ट ही है। यदि कहा जाय – 'आत्मादि स्थल में तो अन्य कोई ग्राहक न होने से भेदोल्लेख होने पर भी अभेद मानते हैं' - तो फिर नीलादिस्थल में भी पृथक्प्रकाश 25 न होने से, भेदोल्लेख होने पर भी अभेद समझ लेना। कर्तृ-कर्मादिरूप से जो वहाँ भेदोल्लेख होता है वह मिथ्या ही है क्योंकि वहाँ अपरोक्षरूप से नीलादि का ही प्रकाशन होता है।
[कर्तृआदि भेदविकल्प का मूल अनादि वासना ] पूर्वपक्ष :- यह जो कर्तृ-कर्म-क्रिया का भेदाध्यवसाय होता है, (चाहे वह सत्य हो या न हो) किन्तु उस का कोई मूल तो होगा ही, क्योंकि कोई भी चीज निर्मूल नहीं होती। (तात्पर्य, जो भी 30 मूल होगा वह संवेदन से भिन्न सिद्ध हो जायेगा।)
उत्तरपक्ष :- यह बात सिर्फ परम्परागत अतिरेक ही है क्योंकि कर्तृ आदि का भेद कहीं भी वास्तविक नहीं है। जैसे सांख्यादि को अनादिवासनामूलक प्रधान-महत्-अहंकारादि के अध्यवसाय होते
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