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खण्ड-३, गाथा-५
१२७ भवेत्। न हि कश्चिद् विशेषो वर्तमानानुभवं प्रति बाधक-दर्शनयोः यतो रजतदर्शनमतीतविषयग्राहि बाधकं तु वर्तमानार्थस्वरूपावेदकमिति विभागो भवेत् । अथ बाधकेऽपरबाधकान्तराभावात्तस्य वर्तमानावभासकत्वम् न तु बाधकावभासप्रत्ययेऽभावप्रतीति: पूर्वमभावप्रतीतिः किं नोपेयते ? न चापरबाधकाभावात् तत्रापि वर्त्तमानार्थग्राहित्वमिति वक्तव्यम्, तत्रापि तत्पर्यनुयोगादनवस्थाप्रसक्तेः।
न च सत्यर्द(दर्श)ने संवादे(?दा)त् साम्प्रतिकार्थग्राहित्वम् भ्रान्तज्ञाने तु विपर्ययात, पूर्वदृष्टावभासित- 5 संवादस्यैवाऽयोगात् । तथाहि- Aकिमुत्तरज्ञानोदयः संवाद: Bउतार्थक्रियाप्रसूति: ? यद्युत्तरज्ञानोदय, स किमेकविषयः, भिन्नविषयो वा ? यद्येकविषयः तदा तैमिरिकस्य केशोण्डुकादिविषयो ज्ञानान्तरोदयः होगा तो वहाँ पूर्वदृष्टार्थग्राहिता माननी पडेगी।' - ऐसा माने तब तो वहाँ बाधक प्रतीति में पूर्वदृष्टरजतादि के अभाव का वेदन भी मानना पडेगा। बाधक प्रतीति या दर्शन दोनों में वर्तमानार्थ अनुभव के बारे में कोई तफावत नहीं है, जिस से कि ऐसा विभाग बन सके कि रजतदर्शन है वह अतीतार्थविषयग्राहि 10 हो और बाधक है वह वर्तमानार्थप्रदर्शक हो। यदि बाधक के प्रति और कोई बाधकान्तर के न होने से उस को वर्तमानार्थप्रदर्शक माना जाय, बाधकप्रदर्शकप्रतीति में अभावप्रतीति का निषेध किया जाय तो उस के पहले ही अभावप्रतीति का स्वीकार क्यों न किया जाय ? ऐसा मत कहना कि - उस
में अन्य बाधक के न होने से वहाँ भी वर्तमानार्थग्राहिता ही होती है - ऐसा कहने पर तो इस में पुनः पुनः प्रश्न खडे होते रहने से अनवस्था दोष आयेगा।
[संवादप्रेरित अर्थग्राहितासाधन का निरसन ] यह कहना कि - सत्यदर्शन में संवाद के बल से वर्तमानार्थग्राहिता मानते हैं, भ्रान्तज्ञान में नहीं मानते क्योंकि वहाँ संवाद के बदले प्रवृत्ति का विसंवाद होता है। - ठीक नहीं है, क्योंकि पूर्वदृष्ट का पुनरवभास करावे ऐसा कोई संवाद सत् नहीं है। स्पष्टता :- संवाद क्या है - Aउत्तरज्ञान उदय, या Bअर्थक्रिया का जन्म ?A उत्तरज्ञानउदय भी एक विषयक या भिन्नविषयक ? यदि एक 20 विषयक उत्तरज्ञानउदय को संवाद कहेंगे तो तिमिररोगी को एक के बाद एक - केशोण्डुक सम्बन्धि अन्य अन्य ज्ञान की शृंखला चलती ही रहती है तो उस के संवाद से उस के ज्ञान को सत्य मानना पडेगा। (केशोण्डुक = नेत्र के संमुख दिखने वाले केश जैसे गोल-गोल मिथ्या तन्तु-समूह ।)। यदि भिन्नविषयक उत्तरज्ञानोदय को संवाद कहेंगे तो वहाँ भी प्रश्न है कि यदि अन्यविषयकदर्शन उदित हुआ इतने मात्र से पूर्वदर्शन को क्या लाभ हुआ ? ऐसे तो फिर भ्रान्तरजतदर्शन के बाद भिन्नविषयक 25 सीपज्ञान का उदय होगा तो क्या भ्रान्तरजतदर्शन को सत्य मानेंगे ?
[ अर्थ के विना भी स्वप्नादि में अर्थक्रियानिष्पत्ति ] Bयदि अर्थक्रियाकारित्व को संवाद कहेंगे तो प्रश्न यह है कि पूर्वदृष्ट जल से ही अर्थक्रियाजन्म .. यथा चिरकालीनाध्ययनादिखिन्नस्योत्थितस्य नीललोहितादिगुणविशिष्टः केशोण्ड्रकाख्यः कश्चिन्नयनाने परिस्फुरति, अथवा करसंमृदितलोचनरश्मिषु येयं केशपिण्डावस्था स केशोण्ड्रकः-१-१-५ शास्त्रदीपिका० युक्तिस्नेहप्रपूरणी सिद्धान्त० पृ०९९ पं०७ । इति भूतपूर्वसम्पादकटीप्पणी।
केशोण्डुकं यथा मिथ्या गृह्यते तिमिरैर्जनैः- (लंकाव. सू. पृ.२७४ ।) केशोण्डका नाम पक्षिणो ये केशमलान्यत्पाटयन्ति - शिक्षासम 490।
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