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खण्ड - ३,
गाथा - ५
१२९
इति हेतूपन्यासो व्यर्थ इति वक्तव्यम्, परं प्रति व्यवहारसाधनाय तस्योपन्यासात् । यो हि नील-तः ( ? तत् ) संविदोरप्रतीयमानमपि प्रत्यक्षतो भेदं 'नीलस्य संविदि ति कल्पनावशात् पारमार्थिकं भेदमिच्छति तस्य नीलतद्धियोः पृथगनुपलम्भात् पृथक्त्वं न युक्तमिति प्रतिपाद्यते, उपलब्धिर्हि सत्त्वम्, न च नील-तद्धियोः क्रमेण युगपद् वा भेदोपलब्धिः संख्य ( ? सत्त्व) व्यतिरेकेण तत्संविद इत्यनुपलब्धेर्नीलव्यतिरेकेण तत्संविद इत्यनुपलब्धिभेदं तयोर्निराकरोति न नील-तद्धियोरभेदः प्रत्यक्षविरुद्ध इति निराकृतं दृष्टव्यम् ।
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न च नील-तद्धियोरभेदे प्रत्यक्षसिद्धे किमनुमानप्रसाध्यम्, अभेदव्यवहारयोग्यताया इ ( ? ए) व साध्यत्वादित्युक्तत्वात्। न च सहोपलम्भनियमो ऽसिद्धः, नीलप्रत्यक्षताव्यतिरिक्तसंविदो निराकृतत्वात् यतो न बोधरूपता बौद्धैस्तद्व्यतिरिक्तरूपेष्टा येन तदनुपलम्भात् सहोपलम्भनियमोऽसिद्धः स्यात् । अपि तु सुखादि-नीलादिप्रत्यक्षतैव संवित् तन्मात्रं च सर्वव्यवहारपरिसमाप्तेश्वरादिव्यापारस्य तत्रैवोपलम्भात् सा च सर्वेषां परिस्फुटमाभाति तदवेदने प्रत्यक्षार्थाऽवेदनोवशे ( ? नमवेदने चाशे ) षस्य जगतः समायातः मात्प ( ? मान्ध्य ) मिति 10
हमें अनुमान की भी क्या जरूर है ? अत एव हमारे पक्ष में, अनुमान में होनेवाले दोषों को भी वास्तव अवकाश नहीं है। हम निषेध करते हैं ऐसा बोलने का कि 'सहोपलम्भहेतु तो फिर निरर्थक हो गया' निषेध का कारण इतना ही है कि अन्य वादियों के प्रति 'नीलादि ज्ञानाभिन्नरूप से व्यवहर्त्तव्य हैं' ऐसे व्यवहार के प्रवर्त्तनहेतु ही सहोपलम्भ हेतु को प्रस्तुत किया जाता है। ऐसे भी वादी हैं नील और उसके संवेदन का भेद प्रत्यक्ष से ज्ञात न होने पर भी 'नील का संवेदन' 15 ऐसी कल्पना के बल से उन दोनों का भेद मानते हैं, उन वादियों को हम यह सिखाना चाहते हैं कि नील और उस की बुद्धि का भिन्नतया उपलम्भ नहीं होने से उन का भेद मानना गलत है। उपलब्धि क्या है सत्ता है। नील और उस की बुद्धि का एक साथ या क्रमशः भेदेन उपलम्भ होता नहीं, क्योंकि सत्ता के अलावा नील संवेदन की उपलब्धि होती नहीं, अतः नील पृथक् नील संवेदन का अनुपलम्भ नील-नीलबुद्धि के भेद का छेद कर देता है । अतः नील और नीलबुद्धि का 20 अभेद प्रत्यक्ष बाधित होने का कथन निरस्त समझ लेना ।
[ अभेद प्रत्यक्षसिद्ध है तो अनुमान का प्रयोजन क्यों ?
ऐसा भी नहीं कहना कि नील और नीलबुद्धि का अभेद यदि प्रत्यक्षसिद्ध है तो अनुमान से किस का प्रसाधन करेंगे ? हम अभेदव्यवहार योग्यता ही सिद्ध करते हैं न कि अभेद को यह पहले कह दिया है । साध्य जैसे अबाधित है, हेतु सहोपलम्भ नियम भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि 25 हमने नीलप्रत्यक्षता से पृथक् संवेदन की सम्भावना का छेद कर दिया है । बौद्धमत में बोधरूपता का नीलप्रत्यक्षता से पृथक् स्वीकार इष्ट ही नहीं है जिस से कि उन की अनुपलब्धि के द्वारा सहोपलम्भ की असिद्धि दिखाई जा सके। हमारा मत है कि सुखादिप्रत्यक्षता या नीलादिप्रत्यक्षता ही संवेदन है, इतना मात्र मान लेने पर सभी व्यवहार सार्थक यानी उपपन्न हो जाते हैं, अन्य लोग जो परमेश्वर का इस विषय में हस्तक्षेप मानते हैं उस की भी उपलब्धि तो व्यवहारसिद्धि के लिये ही मानी जाती 30 । नीलादिप्रत्यक्षतारूप संवेदन का तो सभी को स्पष्ट भान होता है, यदि उस का वेदन नहीं होगा
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