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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ भाष्यकार:- ' स हि बहिर्देशसम्बन्धः (? द्धः ) प्रत्यक्षमुपलभ्यते [मीमां० द० ७ / २३] इति । असदेतत्बुद्ध्यध्यक्षतामन्तरेण नीलादेस्तद्ग्राह्यत्वाऽयोगात् । यदि ह्यपरोक्षा बुद्धिर्नीलप्रतिभासकाले भवेत् तदा युज्येत वक्तुम्— ‘बुद्धिरर्थान् गृह्णाति' इति, यदा तु बुद्धिस्तदा न प्रतिभाति तदा नीलादेरपरोक्षस्याऽप्रादुर्भाव एवोक्तः स्यात् न ग्राह्यता ।
5 किञ्च यथा परोक्षाऽर्थसद्भावात् तदवभासिनी बुद्धिरनुमीयते तथात्मानो व्यापाराध्यक्षतया प्रतिभासनात् सा तदवभासिन्यप्यनुमीयताम् । न चात्मनोऽपि ग्राहिका 'अहम्' इति बुद्धिरस्त्येव इति वक्तव्यम्, परोक्षत्वे तस्याग्राहकत्व ( 1 ) योगात् स्वरूपेण वात्मा प्रतिभातीति स्वसंवेद ( ? द्य) एव युक्तः । [ ?? न चात्मा सत्तादिरूपेण ग्राह्य: ( ? ग्राहक: ) तत्पक्षरूपेण ग्राह्य इति ग्राह्य-ग्राहकयोर्भेदोऽस्तीति वक्तव्यम्, सत्तादिपरिच्छेदे आत्मपरिच्छेदात् । यदि हि सत्ताबोधपरिच्छेदेन तदा आत्मसत्तादिपरिच्छेदोऽन्यथा सत्तादेः सर्वत्र भावाद् मीमांसक अतीन्द्रिय होने के कारण संवेदन को परोक्ष ही मानना चाहिये । अतः अपरोक्षनीलावभास की तरह उस की बुद्धि का भी भान प्रसक्त होने का दूषण सावकाश नहीं है। परोक्ष ही बुद्धि अर्थ का प्रकाशन करती है ] अर्थ तो बहिर्देशसंलग्न प्रत्यक्ष अनुभूत होता है। जैसा कि ( श्लो० वा० शून्य० श्लो० ७९ में) शाबरभाष्यकार कहते हैं 'बाह्यदेशसंलग्न अर्थ प्रत्यक्ष उपलब्ध होता है ।' विज्ञानवादी कहता है, यह सब गलत है। बुद्धि प्रत्यक्ष न होने पर नीलादि कभी बुद्धिग्राह्य हो नहीं सकता । 15 नीलावभासकाल में यदि बुद्धि अपरोक्ष होगी तभी 'बुद्धि अर्थों का ग्रहण करती है' ऐसा कथन उचित ठहरेगा, बुद्धि ही जब भासित नहीं होगी तो नीलादि अपरोक्ष अर्थं का प्रादुर्भाव ही रुक जायेगा, ग्राह्यता कैसे घटेगी ?
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[ आत्मप्रकाशन बुद्धि की भी परोक्षता की आपत्ति ] यह भी ध्यान में लेना
जैसे, परोक्ष बुद्धि अर्थसत्ता के जरिये उस की प्रकाशता बन कर 20 अनुमानसिद्ध होती है, वैसे आत्मा के व्यापार का प्रत्यक्षतया प्रतिभास होने के बल से उस की अवभासक बुद्धि भी अनुमित कर लो । यदि कहें कि हाँ ‘अहम्’ इस प्रकार आत्मा की ग्राहिका बुद्धि होती ही है ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि वह बुद्धि परोक्ष होगी तो ग्राहक नहीं हो सकती । अथवा यही कह दो कि आत्मा स्वयं स्वरूप से भासित होता है अतः स्वसंवेद्य ही है न कि बुद्धि द्वारा प्रकाश्य । ( यहाँ पाठ अशुद्धि के कारण सम्यक् विवेचन दुष्कर है अतः सिर्फ भावार्थ लिखते हैं । 'न 25 चात्मा...प्रकाशनात्') ऐसा नहीं कहना कि
'सत्त्वादिरूप से आत्मा ग्राहक है किन्तु सत्तापक्ष यानी
सत्ताश्रय के रूप में वह ग्राह्य है इस प्रकार ग्राह्य ग्राहक भेद यहाँ भी है' क्योंकि सत्ता और आत्मा एक होने से सत्त्व के भान से आत्मा का भी बोध मानना पडेगा । यदि कहें कि सत्ताबोधप्रकाश से आत्मसत्ता का भान होता है । अन्यथा सत्ता सर्वत्र मौजूद होने से आत्मसत्ता का भान कहने का मानने पर तो आत्मा की अप्रत्यक्षता बोधात्मक ही ठहरेगी क्योंकि बोध के अलावा आत्मा का अन्य 30 कोई स्वरूप नहीं है । 'आत्मा बोधरूप ही है और वह अन्य प्रतीति से प्रकाशित होती है' ऐसा नहीं कहना, क्योंकि वह स्वयं ही बोधात्मक यानी प्रकाशस्वरूप ही है । (यहाँ एक पाठान्तर पूर्वमुद्रित 4. स बहिर्देशसम्बद्धः इत्यनेन निरूप्यते । । ( श्लो० वा० शून्य० श्लो० ७९) इति पूर्वमुद्रिते ।
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