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खण्ड - ३,
गाथा - ५ ११९ नीलादिकमपि (मिव) हृदि प्रतिभास (मा) नाया बहीरूपतासद्भावाद् ग्राह्यताप्रसक्तेः । [ ?? अथ संविदो ग्राहकत्वं बाह्योन्मुखतया प्रकाशता । असदेतत्, संविदाकारव्यतिरेकेण तत्र तस्य भेदप्रतीतेर्नेकता एवं तर्हि पदार्थानुभवोप्यध्यक्षतो भिन्नः प्रतिभातीति कथमेकत्वाध्यवसायेऽपि न तस्य भिन्नता ? ?] ततो नीलात्मैवाऽपरोक्षरूपः प्रतिभाति तद्व्यतिरिक्तस्यानुभवात्मनो नीलग्राहकस्याऽदर्शनात् स्वरूपेणाऽप्रतिभासमानस्य चार्थव्यवस्थापकत्वाऽसंभवात् स्वसंवेदनरूपा नीलादयः सिद्धाः ।
अथ प्रकाशमाननीलव्यतिरिक्तप्रकाशाभावा (त्) 'नीलस्य प्रकाश' इति भेदप्रतीतिर्न स्यात् । असदेतत्, भेदाभावेऽपि 'शिलापुत्रकस्य शरीरम्' इति भेदाध्यवसायदर्शनात् । अथात्र प्रत्यक्षता ( ? त्वा) द् भेदा (? दो) वाच्य ( ? बाध्य ) ते । ननु नील- तद्धियोरपि भेदोल्लेखः कल्पनारचितोऽ विनिर्भागावभासाद् बाध्यत एव । [ ?? अध्य (?त्य) क्षतः परोक्षा संविदुपगम्यते तेनाऽपरोक्षनीलावभासतद्बुद्धेरपि परिच्छेदपुरिसच्छि(प्रसक्ति)रिति न दूषणावकाशः । परोक्षैव बुद्धिरर्थमुद्भासयति ??] अर्थस्तु बहिर्देशसम्बद्ध: प्रत्यक्षमनुभूयते । आह च 10
प्रतिवादी :- नीलादि प्रकाशमान है किन्तु बहिर्मुखस्वरूप से, अतः वह ग्राह्य माना जाय । वादी :- नहीं, हृदय में भासमान नील की बाह्यता की तरह हृदय में भासमान बोध में भी तथाविध बाह्यता सद्भूत होने से बोध में भी ग्राह्यता प्रसक्त होगी । [ अथ संविदो ... भिन्नता पाठ अशुद्धि के कारण सम्यग् विवेचन दुष्कर है। प्रयास किया जाता है 'नीलादि बाह्यरूप से प्रकाशित होता है ( अतः वह ग्राह्य है ) जब कि संवेदन बहिर्मुखतारूप से प्रकाशित होता है यही उस की ग्राहकता 15 है ।' तो यह गलत है, (बहिर्मुखता और बाह्यरूपता में कोई भेद नहीं है ।) यदि कहें कि 'बोध संविदाकार प्रतीत होता है जब कि नीलादि अर्थ संविदाकार पृथक ही हृदय में बोध से भिन्न प्रतीत होता है अतः दोनों में ऐक्य नहीं है ।' अरे ऐसे तो पदार्थानुभव भी प्रत्यक्ष से भिन्न होने का भास होता है, फलतः अनुभव और प्रत्यक्ष के ऐकत्व के निश्चय के रहते हुए भी उन दोनों में भेद क्यों न माना जाय ?] निष्कर्ष, अपरोक्षाकार से जो भासता है वह नीलस्वरूप ही है, उस 20 से भिन्न कोई नीलग्राहक अनुभवस्वरूप दिखता नहीं । जो ( नीलादि) अपने असाधारणरूप से स्फुरित नहीं होता वह स्वभूत अर्थ स्वस्वरूप की व्यवस्था भी कर नहीं सकता, इस लिये नीलादि स्वसंवेदनरूप ही सिद्ध होते हैं ।
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[विज्ञानवाद
'नील का प्रकाश'
भेदबुद्धि की संगति 1
प्रतिवादी :- आप के मत में स्फुरायमान नील से विभिन्न कोई ज्ञानप्रकाश नहीं है तो 'नील 25 का प्रकाश' यह सर्वमान्य भेदबुद्धि कैसे संगत होगी ।
वादी :- शंका गलत है, भेद न होने पर भी जैसे 'शिलाखण्ड का पिण्ड' ऐसी भेदकल्पना दिखती है उसी तरह भेद न रहने पर भी 'नील का प्रकाश' यह बुद्धि हो सकती है।
प्रतिवादी :- शिलाखण्ड - पिण्डस्थल में अभेद के प्रत्यक्ष से भेदबुद्धि का बाध होता है, 'नील का प्रकाश' इस बुद्धि में बाध कहाँ है ?
वादी :- अरे ! नील और उस की बुद्धि में जो भेदनिर्देश होता है वह तो कल्पनाप्रेरित है, नील और उस की बुद्धि के अपृथग्भावप्रतिभास से भेद बाधित होता ही है ।
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