________________
10
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ तदा तज्जननस्वभावतानु(?मु)त्तरकालभाविनस्तत्कार्यस्य तदानीं तस्याऽजननस्वभावतां च किमिति न प्रत्येति ? तथा चोत्तरकाल(भा)विकार्यजननसमये प्रत्यभिज्ञाज्ञानं यदा ‘स एवायम्' इति प्रत्येति तदा कथं प्रत्यक्षेण बाध्यते ? यतः 'अयम्' इत्युल्लेखवत् पुरोऽवस्थित(व?)तत्कालकार्यजनकं वस्तुनः परामृशति ‘स एव' इत्युल्लेखवच्च प्राक्तनम् तदजनकश्च भावः तस्य संस्पृशति, तत् कथं पूर्वापरकालभावि कार्यजनकस्वभावव्यवस्थापकाऽक्षतप्रत्ययक्रान्ता बाधां प्रत्यभिज्ञाज्ञानमनुभवति ? तथा ‘स एवायम्' यः प्रागेव तत्कालकार्याऽजनकस्वभावोऽध्यक्षेण व्यवस्थापितः स यदि न त_यं यो जनकस्वभावतयेदानी परामृष्टः अथायं जनकस्वभावो विरुद्धरूपमाबिभ्रतां द्विचन्द्रादिप्रत्ययानामिव तत्त्वव्यवस्थापकत्वाऽसम्भवादिति स्वप्रतीत्याववाप्यतेयं प्रत्यभिज्ञा। अतो बाधावर्जि(त)त्वमप्यस्यासङ्गतम्। ??) यथा शुक्तिकायां रजताध्यवसायो दुष्टकारणप्रभवत्वेनाऽप्रमाणं तथा प्रतिक्षणविशरारुषु सदृशा
[ प्रत्यभिज्ञा का बाधक अकेला प्रत्यक्ष नहीं ] यदि आपका ऐसा आग्रह है कि प्रत्यभिज्ञा में प्रत्यक्षबाध हो तभी अप्रामाण्य स्वीकारना, अन्यथा नहीं तो जवाब देना होगा कि शालीबीज ही शाली-अङ्कुरजनक क्यों ? कोदरव का बीज क्यों नहीं ? (प्रश्न का हार्द यह है कि बाधकार्य यदि सजातीय से ही होने का माना जाय तो अंकुरकार्य भी सजातीय
अंकुर से ही मानना पडेगा ।) यदि कहें की शालीबीज के रहने पर ही शालीअंकुर का सद्भाव प्रत्यक्ष 15 से ज्ञात होता है इसलिये शालिअंकुर की ही जनकता शालीबीज में प्रस्थापित की जाती है। कोदरव बीज
की नहीं। कोदरव बीज जहाँ पडा है वह प्रदेश शालीअंकुर से रहित है ऐसा प्रतिभासित करनेवाला प्रत्यक्ष कोदरवबीज में शालीअंकुर अजनकत्व को प्रस्थापित करता है। [अब ननु... से... असङ्गतम् पर्यन्त जो पाठ है कुछ कुछ अंश उस के अशुद्ध है अतः स्पष्ट विवरण प्रायः शक्य नहीं, फिर भी कुछ प्रयास किया
जाता है, तो यहाँ प्रश्न है कि - जो अध्यक्ष किसी वस्तु के अन्वयव्यतिरेकानुगामि तत्कालीन कार्य का 20 अवगम करता हुआ उस वस्तु की तज्जननस्वभावता को ग्रहण करता है - तो उत्तरकालभावि तत्कार्य
में उस वस्तु की अतज्जननस्वभावता की प्रतीति क्यों नहीं करता ? अगर प्रत्यक्ष से ऐसी प्रतीति होगी तो प्रत्यभिज्ञान जब (पूर्वकालीन अर्थ ज्ञान के बाद) उत्तरकालभाविकार्यजननकाल में ‘यह वही है' (= स एवायम्) ऐसी प्रतीति करता है उस का बाध प्रत्यक्ष कैसे करेगा ? कारण, 'अयम्' ऐसा आंशिक उल्लेखवाला
प्रत्यभिज्ञाज्ञान वस्तु की संमुख अवस्थित तत्कालकार्यजनकता का परामर्श करता है और ‘स एव' इस अंश 25 का उल्लेखवाला प्रत्यभिज्ञाज्ञान पूर्वकालीन अत एव उत्तरकालीन भाव का अजनक, उस का परामर्श करता
है। तब यह प्रश्न होगा कि पूर्वापर काल भावि कार्यजनकस्वभावव्यवस्थापक अखंडताप्रतीतिआक्रान्त प्रत्यभिज्ञान में बाधा क्यों नहीं आयेगी ? तथा, जो पहले प्रत्यक्ष से तत्कालकार्यजननस्वभाववाला प्रस्थापित हुआ था ‘वही है यह' वह अगर नहीं है तो जो अभी 'यह' इस रूप से जननस्वभावतया उल्लेखित किया
जाता है तो यह जननस्वभाव विरोधिस्वभावग्रस्त बन जायेगा, फिर चन्द्रद्वयावगाहिभ्रान्तप्रतीतियाँ की तरह 30 तत्त्व की व्यवस्था उस से नहीं हो सकेगी। अतः उस की प्रतीति से ही प्रत्यभिज्ञा बाधित होगी। तो फिर
प्रत्यभिज्ञा को आप बाधवर्जित कैसे सिद्ध करेंगे ?
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org