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खण्ड-३, गाथा-५
अथ स्मृतिसहिताया दृशस्तत्त्वे व्यापाराद् न प्राक्तनदर्शने प्रतिभासनम् । असारमेतत्, यतः स्मरणसहायमपि दर्शनं नैकत्वग्रहणक्षमम् तस्य वर्तमानमात्र एव व्यापारात्। वर्तमानमेवाक्षप्रभवे ज्ञाने प्रतिभातीति तदेव तद्विषयो न तत्त्वम्। यच्च यदगोचरः तद् अन्यसद्भावेऽपि न तत्र प्रतिभाति यथा गन्धस्मृतावपि न दृशि परिमलः, दृगविषयश्च पौर्वापर्यम्, तन्न स्मृतावपि तत् तत्र प्रतिभाति । तथा, स्मृतिरपि नैकत्वमवगच्छति, वर्त्तमानदृग्विषये तस्याः अप्रवृत्तेः। न हि वर्तमानदर्शनग्राह्यं रूपं स्मृतिः परामृशति परोक्षाकारतया तस्याः 5 प्रवृत्तेः। असंस्पर्शे च न स्वविषयस्य तेन सहैक्यमवगमयति।
न च दर्शनस्मरणयोरेकाधिकरणता तत्त्वम् तथाप्रतीत्यभावात् तयोः, स्फुटाऽस्फुटावाकारौ बिभ्राणे दर्शन-स्मरणे नैकाधिकरणतामश्नुवीयाताम् सर्वसंविदामेकाधिकरणतापत्तेः। न च तत्र प्रतिभासभेदाद भिन्नार्थता, हो जाता, नहीं होता है अत एव वह (प्रत्यभिज्ञान) असत्य है।
[ स्मृतिसहकृत दर्शन से एकत्व का ग्रहण असम्भव ] आशंका :- स्मृतिउपकृत दर्शन ही तत्त्व यानी एकत्व के ग्रहण में व्याप्त होता है अतः पूर्वक्षण के दर्शन में उस का प्रतिभास नहीं होता क्योंकि उस को स्मृति की सहायता नहीं मिलती।
समाधान :- यह कथन भी निःसार है। कारण, स्मृति उपकृत दर्शन भी एकत्व ग्रहण में सक्षम नहीं, क्योंकि दर्शन का व्यापार सिर्फ वर्तमान अर्थ ग्रहण पर्यन्त ही होता है। इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान में तो वर्तमान अर्थ ही भासता है इसलिये उस का विषय भी वर्तमान अर्थ ही होता है, तत्त्व 15 (= एकत्व) नहीं। जो जिस ज्ञान का विषय ही नहीं वह अन्य (स्मृति आदि) के रहते हुए भी उस ज्ञान में दृग्गोचर नहीं हो सकता, उदा० चक्षुदर्शन अगोचर परिमल गन्धस्मृति के रहते हुए भी चक्षुःप्रत्यक्ष में भासित नहीं होता। एकत्व या एक वस्तु में ही क्षणभेद से घट सके ऐसा पूर्वअपरभाव दर्शन में तो दिखता नहीं, जो अनुभव-विषय नहीं होता उस का स्मरण भी कैसे होगा ? स्मृति में भी पौर्वापर्य का भासन शक्य नहीं। उपरांत, स्मृति एकत्व का परामर्श भी नहीं कर सकती क्योंकि 20 वर्तमान दर्शन के विषय को वह छूती नहीं। सच ही है कि वर्तमानदर्शनगोचर वस्तुस्वरूप का परामर्श स्मृति स्वयं प्रत्यक्ष नहीं है। जिस को वह छूती नहीं उस के साथ अपने विषय का ऐक्य कैसे वह ज्ञात करेगी ?
[ एकाधिकरणतारूप अभेद की परिभाषा का प्रतिकार ] तत्त्व यानी एकत्व या अभेद की ऐसी परिभाषा की जाय - दर्शन और स्मृति की एकाधिकरणता, 25 मतलब, दर्शन एवं स्मरण का विषय एक होता है। - तो यह परिभाषा प्रामाणिक नहीं है क्योंकि उसे सिद्ध करनेवाला कोई अनुभव नहीं होता। दूसरी बात यह है कि दर्शनाकार स्पष्ट होता है जब कि स्मरणाकार अस्फुट होता है अतः उन दोनों की समानविषयतारूप एकाधिकरणता संभव नहीं है। अन्यथा, आकारभेद रहते हुए भी दो ज्ञानों की एकाधिकरणता मान लेंगे तो सकल संवेदनों की एकाधिकरणता मान लेना पडेगा, चाहे उन में कितना भी भेद हो। यदि कहा जाय - दर्शन-स्मरण 30 में जो एकार्थता (एकविषयता) की प्रतीति न हो कर भिन्नार्थता प्रतीत होती है उस का कारण विषयभेद नहीं होता है। - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्फुट और अस्फुट प्रतिभास भेद से दर्शनस्मरण
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