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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१
वचनविच्छेदः इति। तस्य = ऋजुसूत्रतरोः तु अवधारणार्थः तेन तस्यैव न द्रव्यास्तिकस्य शब्दादयः शब्दादर्थं गमयन्तः शब्दनयत्वेन प्रतीताः शब्द-समभिरूद्वैवंभूतास्त्रयो नया: शाखा-प्रशाखाः इव स्थूलसूक्ष्म-(-सूक्ष्म)तरदर्शित्वात् सूक्ष्मो भेदो = विशेषो येषां ते तथा। यथा हि तरोः स्थूला: शाखाः,
सूक्ष्मास्तत्प्रशाखाः प्रतिशाखा अति(?पि) सूक्ष्मतराः – एवम् ऋजुसूत्रतरोः स्थूल-सूक्ष्म-सूक्ष्मतरा: शाखा(:) 5 प्रशाखा(:) प्रतिशाखारूपा अशुद्ध(:) शुद्ध(-शुद्ध)तरपर्यायास्तिकरूपाः शब्द-समभिरूढ-वंभूतास्त्रयो नया: दृष्टव्याः ।
तथाहि- ऋजुसूत्राभ्युपगतं क्षणमात्रवृत्ति वस्तु दिं(?लिं)गादिभेदाद् भिन्नं शब्दो वृक्षाच्छाखामिव सूक्ष्ममभिमन्यते एकसंज्ञम्, समभिरूढः शब्दाभिमतं वस्तु संज्ञाभेदादपि भिद्यमानं शाखात: प्रशाखामिव
सूक्ष्मतरमध्यवस्यति, तदेव समभिरूढाभिमतं वस्तु शब्दप्रतिपाद्यक्रियासमावेशसमय एवं स्थिति(ति) भूत 10 कारिका में जो कहा था कि पर्यायनय का मूलाधार ऋजुसूत्रवचनविशेष है यह भी निर्णीत हो जाता
है। पाँचवी कारिका का शब्दार्थ इस प्रकार है - तस्य (= उस का) यानी ऋजुसूत्रवृक्ष का, 'तु' अव्यय अवधारण अर्थ में है, अतः ‘उस के ही न कि द्रव्यास्तिक नय के' ऐसा निर्दिष्ट होता है। 'शब्दादिक' यानी शब्द के मुताबिक अर्थ का भान करानेवाले 'शब्दनय' संज्ञा से प्रसिद्ध तीन नय १शब्द, २समभिरूढ,
३एवंभूत नय। ('शब्दादिक' यह उद्देश है, अब विधेय का निर्देश करते हैं –) ये तीन नय पर्यायनय 15 की (यानी ऋजुसूत्रनयवृक्ष के) शाखा-प्रशाखाएँ हैं, क्योंकि स्थूल-सूक्ष्म और सूक्ष्मतर (अर्थ के) प्रदर्शक
हैं। मूल पाँचवी कारिका में जो ‘सुहुमभेया' (= सूक्ष्मभेदाः) पद है वह 'सूक्ष्म है भेद यानी विशेष जिन के' इस प्रकार के विग्रहवाले बहुव्रीही समास गर्भित है।
जैसे वृक्ष की पहले स्थूल शाखाएँ निकलती है, फिर कुछ पतली (सूक्ष्म) प्रशाखाएँ निकलती हैं, फिर उन से भी पतली (सूक्ष्मतर) प्रतिशाखाएँ निकल आती है - इसी तरह ऋजुसूत्रनयवृक्ष की 20 स्थूल-सूक्ष्म-सूक्ष्मतर शाखा-प्रशाखा-प्रतिशाखा स्थानीय अशुद्ध-शुद्ध-शुद्धतर पर्यायास्तिकनयस्वरूप शब्दसमभिरूढ-एवंभूत ये तीन नय जान लेना।
स्पष्टता :- सब से पहले पर्यायनयवृक्षस्वरूप ऋजुसूत्रनय ने क्षणमात्रजीवि वस्तु का निर्देश किया। मतलब कि वस्तु क्षणभेद से भिन्न होती है यह दिखाया। साथ में, यह नय भिन्न भिन्न लिंगवाले
शब्दों के अर्थ में लिंगभेद से भिन्नता का निर्देश नहीं करता। इन्द्रदेव (पु०) कहो या इन्द्रदेवता (स्त्री.) 25 कहो बात एक ही है। शब्दनय यहाँ सूक्ष्म दृष्टिपात कर के निर्देश करता है कि इन्द्रदेव पुल्लिंगशब्द
का अर्थ एवं इन्द्रदेवता स्त्रीलिंगशब्द का अर्थ पृथक् पृथक् है। वृक्ष की अपेक्षा जैसे शाखा पतली (सूक्ष्म) होती है वैसे 'शब्द' नय भी ऋजुसूत्र की अपेक्षा अपने को 'सूक्ष्मदृष्टि' समझता है। साथ में वह मानता है कि इन्द्र-शक्र-पुरंदर ये सब एकसंज्ञक होते हैं - मतलब एकार्थ संज्ञापक-सूचक होते
हैं, पर्यायवाचिशब्दों का भेद होने पर भी अर्थभेद नहीं है। यहाँ समभिरूढ नय शाखा से आगे प्रशाखा 30 की तरह सूक्ष्मतरदृष्टिपात करता हुआ कहता है कि शब्दनयमान्य यह एकार्थकता ठीक नहीं है। संज्ञाभेद
से वस्तु भिन्न होती है। इन्दन (ऐश्वर्यभोग) कारक इन्द्र होता है और शक्तिप्रदर्शक शक्र होता है। पुर का दारण (भेदन) करनेवाला पुरंदर होता है। ज्ञातव्य है कि जैसे पाक क्रिया करते समय पाचक
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