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खण्ड-३, गाथा-५
न च यदि निर्हेतुको भावस्य विनाश: उत्पादोऽपि तथैवास्तु, भाव()भावधर्मत्वाऽविशेषात्। यतो न विनाशो नामान्य एव कश्चिदुदयापवर्गिणो भावात्, भावश्च स्वहेतोरेव तथाभूत उत्पन्नो न कश्चिद्धर्मोऽस्यान्नि(?नि)मित्तः केवलं तमस्य स्वभावं पश्यन्नपि मन्दबुद्धिर्न विवेचयति दर्शनपाटवाऽभावात् । यदा तु विसदृशकपालादिविधुरप्रत्ययोपनिपाताद् उत्पद्यते तदा भ्रान्तिकारणविगमात् प्रत्यक्षनिबन्धनो निश्चय उत्पद्यते, अनुमानतो भावानां सुविदुषां प्रागपि भवत्येव । यथा विषस्वरूपदर्शनेऽप्यतत्कारिपदार्थसाधर्म्यवि- 5 प्रलब्धो न मारणशक्तिं नि(श्चि)नोति प्राक्, पश्चात्तु विकारदर्शनात् तन्निश्चयः । न च शक्तिमतः शक्यतो भेदमनुभवन्ति इति प्रतिपादितं सौगतैः । जातस्य च स्वभावस्य विनश्वरत्वेऽन्यानपेक्षणाद् निर्हेतुको विनाश उच्यते- इति स्थितमेतद् यथोक्तप्रकारेणानुमानतो भावानां क्षणक्षयो सिद्धः। प्रत्यक्षतोऽपि क्षणक्षयाधिगमे तद्व्यवहारसाधनानुमानं साफल्यमनुभवतीत्यपरे प्रतिपन्नाः। तदेवं प्रत्यक्षतः अनुमानतश्च क्षणिकत्वव्यवस्थितेः स्थितमेव(?)तद् मूलाधारः पर्यायनयस्य ऋजुसूत्र- 10
[ भावधर्म और अभावधर्म तुल्य नहीं होते ] ऐसा मत सोचो कि – ‘भाव का विनाश निर्हेतुक है तो उत्पाद भी निर्हेतुक होने दो' - क्योंकि तब भावधर्म और अभाव धर्म तुल्य हो जायेंगे। कारण, उत्पत्ति-विनाश शाली भाव से अतिरिक्त कोई विनाश होता नहीं है। भाव तो अपने हेतुओं से क्षणभंगुर ही उत्पन्न होता है। कोई भी भाव का धर्म (उत्पत्ति आदि) अनिमित्त नहीं होता। विशेषता सिर्फ यही है कि मन्दबुद्धि भाव के इस स्वभाव 15 को देखने पर भी, देखने में सतर्कता न होने के कारण, उस का निर्णय नहीं कर पाता है। (अतः प्रतिक्षण उत्पत्ति का भान नहीं होता - सादृश्य यहाँ भ्रान्ति का बीज होता है।) किन्तु जब विसदृश कपालादि से व्याप्त प्रतीति उद्भूत होती है तब वहाँ भ्रान्तिबीज सादृश्यदर्शन का प्रलय हो जाने से प्रत्यक्षमूलक ही उत्पत्ति-निश्चय उदित होता है। अनुमान से तो उत्पत्ति के पहले भी अच्छे पंडितों को भावि भावोत्पत्ति का निश्चय होता है। उदा० विष को देखने पर भी मृत्युअकारकअन्नादिपदार्थसादृश्यमूलक 20 वञ्चना के कारण मारणशक्ति का निश्चय पहले नहीं होता, किन्तु किसीने थोडा खा लिया, फिर तज्जन्य विकार (मस्तकभ्रमि आदि) को देखने पर मारणशक्ति का निश्चय उदित होता है। बौद्ध विद्वान् ऐसा नहीं कहते कि (मारण) शक्ति और शक्तिमंत (विषादि) में भेद होता है। (अतः अभ्यस्त पटु दृष्टा को विष के दर्शन में मारणशक्ति का भी भान हो ही जाता है।)
निष्कर्ष यह है कि अपने हेतुओं से विनश्वरस्वभावयक्त ही उत्पन्न होनेवाले भाव को नष्ट होने 25 के लिये ओर किसी हेतुओं की अपेक्षा नहीं रहती अतः विनाश निर्हेतुक होता है, अत एव उत्पत्ति अनन्तर ही द्वितीयक्षण में विनाश का उदय होने से पदार्थों की क्षणिकता निर्बाध अनुमानसिद्ध हो जाती है। कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि क्षणक्षयिता जो भावधर्म है वह भाव के प्रत्यक्षदर्शन में विषयभूत बनती है अतः प्रत्यक्षसिद्ध भी है - फिर क्षणिकता के व्यवहार की प्रसिद्धि के लिये ही अनुमान सार्थक बनता है।
___30 [ ऋजुसूत्र पर्यायनय का विस्तार शब्द-समभिरूढ-एवंभूतनय ] उपरोक्त प्रकार से, प्रत्यक्ष और अनुमान से क्षणिकता का निश्चय हो जाने से, पाँचवी मूल
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