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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ सामग्रीवशात् संवेदनक्रियायुक्तो भातीति कर्ताऽसाविति वक्तव्यम्, यतो यदा संवित्क्रियायुक्तो बोधः प्रतीयते न तदा तत्पूर्वदशावगमः, यदा च तदवगमः न तदा संविद्युक्तावस्थाधिगतिरिति न पूर्वापरकालावगतिस्तयोरवस्थयोः, तदभावे च कथं बोधस्य ग्रहणं प्रति कर्तृताप्रतीति: ?
___ अथ नीलानुभवसमये पूर्वदशां स्मरन् बोधस्यानुभवं प्रति कर्तृतां प्रतिपद्यते। अयुक्तमेतत्- नीलपरिच्छेद5 काले बोध-ग्रहणयोः परस्पराऽसंसक्तयोः समानकालयोः प्रतिभासनात् कर्तृतावगमासम्भवात् । न च बोधस्य
पूर्वावस्थां अध्यवस्था(स्य)दपि स्मरणं ग्रहणावस्थां प्रतिपद्यते, इति कथं तत् कर्तृतामुद्द्योतयितुं प्रभु ? न च बोधात्मैवात्मानमुपलभत इति कर्तृतावगतिः, यतो यदा नीलग्राहकमात्मानं बोधः प्रतिप(?)द्यते न तदा पूर्वसत्तामनुभवकी प्रतिपद्यत इति कथं ग्रहणं प्रति जनकतामात्मनोऽसावधिगच्छति ? न च
प्राक्तनीमग्रहणावस्थं() नीलाऽवभासकालेऽसावध्यवसा(?स्य)ति, प्रतिभासयोः युगपद्विरुद्धयोरापत्तेः । तस्मात् 10 समानकालो बोधो न ग्रहणक्रियामुपजनयितुं समर्थ इत्यग्राहक एव ।
तो उन दोनों में कारण-कार्यभाव कैसे जमेगा ? यदि कहा जाय – ‘पहले क्षण में ज्ञान स्वरूपतः (निर्विशेषण शुद्धरूप) से प्रकट हुआ, दूसरे क्षण में नेत्रादिसामग्रीप्रभाव से संवेदनक्रियाविशिष्ट ज्ञान भासित होता है, इसलिये ज्ञान को 'कर्ता' कह सकते हैं।' – तो यह ठीक नहीं, क्योंकि जिस क्षण
में ज्ञान संवेदनक्रियायुक्त भासित होता है तब पूर्वदशा(शुद्धदशा)वाला ज्ञान तो भासित नहीं होता 15 (तब कैसे कह सकते हैं कि विशिष्ट ज्ञान पूर्वकालीनज्ञान का अभिन्न विशिष्ट रूप है?) तथा जब
पूर्वदशापन्न बोध पूर्व क्षण में जीवित है तब संवेदनक्रियायुक्त ज्ञान भासित नहीं होता - इस तरह किसी भी क्षण में दोनों अवस्थावाले एक ज्ञान का पूर्व-पश्चात् काल का बोध तो है नहीं - तब फिर उस के विरह में ग्रहणक्रिया के प्रति ज्ञान के कर्तृत्व की प्रतीति कैसे होगी ?
[समकालीन बोध ग्रहणक्रिया के लिये असमर्थ ] 20 आशंका की जाय – 'नीलदर्शनकाल में बोध की पूर्वावस्था का स्मरण करनेवाला उस अनुभव
के प्रति ग्रहणकर्तृत्व का भी भान कर लेता है' – तो यह गलत है क्योंकि नीलदर्शनकाल में बोध और ग्रहण का परस्परसंकलित नहीं किन्तु समानकालीन फिर भी परस्पर असंकलित ही प्रतिभास होता है अतः पृथक कर्तृत्व का बोध सम्भव नहीं। मान ले कि बोध पर्वावस्था का स्मरण करता है फिर
भी ग्रहणावस्था का तो भान नहीं करता, फिर कैसे वह कर्तृता का ग्रहण करने के लिये सक्षम बनेगा ? 25 यदि कहें कि – ‘बोधात्मा स्वयं अपने आत्मरूप का उपलम्भ करता है (उस में कर्तृत्व का भी हो
जायेगा)। अतः कर्तृता भासित हो सकेगी' – तो यह ठीक नहीं है – क्योंकि जब बोध स्वयं नीलग्राहकतया स्व को देखता है तब अनुभव करने वाली (खुद की) पूर्वसत्ता को देखता नहीं है, फिर कैसे ग्रहणकारकरूप में स्व का भान कर सकेगा ? यदि कहें कि - ‘बोध नील भासनकाल में पूर्वतन ग्रहणावस्था का
निर्णय करता है' - तो यहाँ एक साथ अन्योन्य विरुद्ध दो प्रतिभासों की सत्ता का अनिष्ट प्रसंग 30 आयेगा क्योंकि नीलदर्शनरूप एक वर्तमान प्रतिभास और ग्रहणावस्थारूप पूर्वतन का प्रतिभास, ये दोनों
एक काल में विरुद्ध है। अतः सिद्ध होता है कि समकालीन बोध ग्रहणक्रिया के व्यापार में समर्थ न होने से अग्राहक ही है।
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