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खण्ड-३, गाथा-५ किञ्च, यदि बोधो व्यतिरिक्तां ग्रहणक्रियामुपरचयति नीलस्य किमायातं येन तद् ग्राह्यं भवेत् विज्ञानं तद्ग्राहकमिति। न च संविदुत्पत्तावपरोक्षतया नीलमाभातीति ग्राह्यम्, संविदुत्पादेऽपि तस्याऽप्रकाशात्मकस्य प्रतिभासाऽयोगात् । तथाहि- नीलादिरों जडरूपत्वात् न स्वयं प्रतिपत्तिगोचरतामवतरतीति दर्शनं प्रकाशकमस्याऽभ्युपगतम् । यदि पुन: स्वप्रकाशात्मकं नीलं स्यात् तदा ‘विज्ञप्तिरूपं नीलम्' इति परवाद एवाभ्युपगतो भवेत् । यच्चाऽप्रकाशात्मकं वस्तु तत् प्रकाशसद्भावेऽपि नैव प्रकाशते। यतो न प्रकाशात्मा 5 नीलं संक्रामति भेदप्रतिहतिप्रसङ्गात् । न चार्थाकारकार्यतया प्रकाशस्यार्थस्य प्रकाशता, यतोऽपरोक्षाकाररूपत्वे तस्य प्रत्यक्षता युक्ता यथा नीलस्वभावतायां नीलस्य नीलरूपता, न तु प्रकाशात्मनं(?न:) कार्यस्योद्भूतेः, अर्थकार्यतया हि तत्सम्बन्धिता प्रकाशस्य संगता, यथा नयनकार्यतया तत्सम्बन्धिता, न तु तत्स्वरूपं प्रकाशः। ____ अथेन्द्रियाणां ज्ञाने स्वरूपाऽनर्पणाद(प्रत्यक्षता, अर्थस्य तु तत्र स्वरूपपरिच्छेदात् प्रत्यक्षता। असदेतत्, 10 अर्थस्य प्रत्यक्षस्वरूपाऽसम्भवात्, यतो न नीलादे: स्वरूपम् बहिरुन्मुखताऽप्रतीति:(तेः)। अथाप्यपरा बहिरुन्मुखता तत्रास्ति तथापि स्वरूपमात्रनिमग्ना प्रतिभासमानमूर्तिः सा तृतीया सिद्धेति न तद्वशाद बोधस्य
[भिन्न ग्रहणक्रिया की उत्पत्ति का नील से क्या सम्बन्ध ? ] और एक बात :- बोध जब नील (या बोध) से भिन्न (तृतीय) ग्रहणक्रिया का सर्जन करता है, तो इस में नील को क्या लाभ हुआ कि जिस से नील को ग्राह्य बना दिया और बोध को 15 ग्राहक ? ऐसा नहीं है कि संवेदन की उत्पत्तिकाल में नील (जड) अपरोक्षरूप से भासित होने के कारण ग्राह्य बन जाय, संवेदनोत्पत्तिकाल में भी अप्रकाशात्मक (= जड) नील का प्रतिभासित होना सम्यक् नहीं है। स्पष्ट है कि नीलादि भाव जडरूप होने से स्वयं ग्रहणगोचर नहीं बन सकता, इसीलिये तो आप उस के प्रकाशकरूप में दर्शन को स्वीकारते हैं। यदि नील स्वयं प्रकाशात्मक होने का मानेंगे तो 'नीलादि विज्ञानमय हैं' - इस परकीय मत को ही स्वीकारना पडेगा। यह नियम है कि वस्तु 20 यदि अप्रकाशात्मक होगी तो अन्यप्रकाश के योग से भी वह स्फुरित नहीं हो सकती। कारण, प्रकाशपिंड नील स्वरूप में परिणत हो नहीं सकता, यदि होगा तो जड वाद में नील एवं प्रकाश का भेद लुप्त हो जायेगा। प्रकाश की अर्थाकाररूपता अर्थ पर निर्भर है इस लिये अर्थ की प्रकाशता स्वीकारार्ह नहीं बन जाती। कारण, यदि वह अर्थाकारता अपरोक्षाकारता है तो उस की प्रत्यक्षमयता भी माननी पडेगी जैसे नीलस्वभावता के होने पर नील में नीलरूपता। यह भी ठीक नहीं है कि ‘अर्थ से प्रकाशात्मक 25 कार्य की उत्पत्ति होती है इस लिये अर्थकार्य होने की वजह प्रकाश में अर्थसंसर्गता की संगति बन जाय, जैसे कि नयनकार्यता से प्रत्यक्ष में नयन संसर्गता (नहीं होती)। प्रकाश कभी नयनस्वरूप नहीं होता।
[ अर्थ की प्रत्यक्षता का तथा कर्मादित्रितयप्रतीति का निषेध ] शंका :- नयन या इन्द्रिय का प्रकाश न होने का कारण है ज्ञान में अपने आकार का अनर्पण, 30 जब कि अर्थ तो अपने आकारमय स्वरूप का समर्पण करता है इस लिये उस का भान होने से अर्थ में प्रत्यक्षता होती है।
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