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खण्ड-३,
गाथा - ५
११३
कल्पनोल्लिख्यमानस्य कर्म-कर्तृभावस्य नीलसंविदो : स्वतन्त्रतया निर्भासोऽस्त्येव बाधक इति कथं न ग्राह्यग्राहकभावोऽसत्यः ? किञ्च भ्रान्तेऽपि प्रत्यये ग्राह्य-ग्राहकतोल्लेखो दृश्यते, न च तदुल्लेखमात्रभ्रान्तदर्शनावभासिनः केशादेः सत्यता । अथ तत्र बाधकसद्भावादसत्यता, न, बाधाऽयोगादित्यभिधानात् । [ ??न च बहिरर्थाभावेऽपि कथं ग्राह्यताऽध्यवसायादयः वितथदर्शनावसेये केशकलापाध्यवसेये केशकलापाध्यवसायेऽप्य (स्य) समानत्वात् । अथात्र सत्यकेशग्राह्यताऽध्यारोप्यते वितथकेशाभावे अर्थाभावे तु सर्वसंविदां न 5 क्वचित् पूर्वदर्शनदृष्टा ग्राह्यता वर्त्तमानदर्शनेऽध्यारोप्यते तत्राप्यपरपूर्वदर्शनदृष्टा तत्राप्येवमित्यनादिरध्यारोपपरम्परा बहिरर्थाभावेऽपि व्यवहारनिबन्धनं युक्तैवेति ??]
अपि च, तुल्यकालं प्रकाशमानवपुर्नीलमुद्भासयन्तीं प्रतीतिमभ्युपते ( ? पे ) त्य व्यापाराभावाद् ग्राह्यग्राहकभावः प्रतिक्षिप्तः सैव प्रतीतिर्विचार्यमाणा न सङ्गच्छते कुत एवार्थग्राहिणी स्यात् ? तथाहि— अनुभूयमानमर्थाकारं विहाय नान्या प्रतिय(?संवि) दाभाति । यतः प्रकाशमानं नीलादिकं बहिः अन्तश्च सुखादि स्वसंविदितं 10 यद्यपि होती है, उस में भी सत्यता प्रसक्त होगी। ऐसा कहना कि वहाँ तो बाध होने से सत्यता नहीं होती तो प्रस्तुत में भी वह समान है । स्पष्टता : नील और संवेदन का स्वतन्त्र निर्भास होता है यही बाधक है कल्पना से उल्लिखित कर्म-कर्तृभाव का, तो ग्राह्य-ग्राहकभाव असत्य क्यों नहीं ? और एक तथ्य है कि ग्राह्य ग्राहकभाव तो केशोण्डुक की भ्रमप्रतीति में भी दिखता है, वहाँ ग्राह्यग्राहकभावप्रदर्शक भ्रान्त दर्शन से निर्दिष्ट केशादि में सत्यता नहीं होती। ऐसा कहें कि उस में 15 गलत है क्योंकि वहाँ उत्तरकाल में केशाभावग्राहक
बाधक की सत्ता होने से केशादि माना जाता है कोई बाधक ज्ञान का उदय नहीं होता ।
[ आगे अब पाठ अशुद्धि के कारण सम्यक् विवेचन करना दुष्कर है, यथामति प्रयास करते हैं प्रतिवादी पूछता है कि बाह्यार्थ का अस्वीकार करे तो भी ग्राह्यतादि का जो प्रतिभास होता है वह कैसे संगत होगा ? वादी उत्तर में कहता है कि जैसे केशादि के न होने पर भी मिथ्यादर्शनगोचर 20 केशवृन्दाध्यवसाय में समानतया ग्राह्यताबुद्धि होती है । प्रतिवादी : मिथ्या केश स्थल में यद्यपि केश का अभाव है, फिर भी वहाँ सत्यकेशगत ग्राह्यता का आरोप होता है, विज्ञानवादी के मत में तो अर्थ ही नहीं है, किसी भी संवेदन या पूर्व - पूर्वदर्शन में अर्थ की ग्राह्यता नहीं है जो कि वर्त्तमानकालीन दर्शन में आरोपित की जा सके अतः ग्राह्यता प्रतिभास कैसे संगत करेंगे ? वादी : यद्यपि बाह्यार्थ नहीं है, फिर भी मिथ्या केश के भ्रान्त दर्शन में वासनाप्रेरित पूर्वकालीन भ्रान्त केशदर्शनदृष्ट ग्राह्यता 25 के प्रभाव से ग्राह्यता का अध्यवसाय होता है, उस में पूर्वकालीन दर्शनदृष्ट ग्राह्यता का, उस में भी... इस तरह अध्यारोपपरम्परा मूलक ही ग्राह्यताव्यवहार युक्त है, भले बाह्यार्थ का स्वीकार न हो । ) [ तुल्यकालीन नीलोद्भासक प्रतीति की अनुपपत्ति ]
यह भी ध्यान में लिजिये समानकाल में स्फुरायमाणपिण्डवाले नील को उद्भासित करनेवाली प्रतीति भी स्वीकारार्ह नहीं है, हमने तो अभ्युपगमवाद से उस के ग्राह्यग्राहकभाव का प्रतिक्षेप किया 30 है, क्योंकि उस प्रतीति का कोई ग्रहणादि व्यापार सद्भूत नहीं है। वास्तव में जाँच करे तो पता चलेगा कि वैसी प्रतीति ही युक्तिसंगत नहीं है जो बाह्यार्थप्रकाशित करे। स्पष्टता :- अनुभवगोचर
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