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खण्ड-३, गाथा-५
१०१ तेनाऽनुमानबाधेति वक्तव्यम्- इतरेतराश्रयप्रसक्तेः । तथाहि- अर्थाभावे सिद्धे तद्ग्राहि अध्यक्ष भ्रान्तं सिद्ध्येत् - अन्यथा कथमवितथार्थग्राहिणो भ्रान्तता- भ्रान्तत्वे च तस्य सिद्धे अर्थाभावानुमानस्ये(स्य)न तेन बाध्यते(ति) व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । न च तद् अध्यक्षमेव न भवति अनुमानेन बाधनादिति वक्तव्यम्, अनुमानेप्यस्य पर्यनुयोगस्य समानत्वात्। [??तथाहि- बाह्याभावग्राह्यस्य भ्रान्तत्वात् तेनानुमानबाधेति वक्तव्यम् इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि- अर्थाभावे सिद्धे बलादनुमान(?न) प्रमाणमिति दर्शनाभावेप्यर्थाभाव- 5 सिद्धिः तत्प्रतिबन्धसिद्धेः अध्यक्षमिति तत्त्वात् अन्यथा अनवस्थापत्तेरिति नानुमानवेद्योप्यर्थाभावः ??]। ___ अपि च, तदनुमानं किं कार्यलिङ्गप्रभवम् स्वभावहेतुसमुत्थं वा, उतानुपलब्धिप्रसूतम् ? इति विकल्पत्रयम् । न तावत् प्रथम-द्वितीयपक्षी कार्य-स्वभावहेत्वोर्विधिसाधकत्वाभ्युपगमात् ‘अत्रे(?त्र) द्वो(?द्वौ) वस्तुसाधनौ'(न्या०बि०२-१९) इधि(?ति) वचनात् । नापि अनुपलब्धिप्रसूतमिति पक्षः अनुपलब्धेरसिद्ध(त्वा)त्, बहिरर्थस्य प्रतिभासनात् । उपलभ्यानुपलब्धिस्वा(?स्त्व)भाव(?)साधनी, सा च नियतदेश-कालमेवार्थाभावं गमयति न 10 से अनिराकृत होना चाहिये' यह आप्तवचन है। ऐसा नहीं कहना कि बाह्यार्थप्रदर्शक प्रत्यक्ष भ्रान्त होने के कारण उस भ्रान्त प्रत्यक्ष से अनुमान को बाधा नहीं पहुँच सकती, क्योंकि तब अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। स्पष्ट है कि बाह्यार्थाभाव सिद्ध होने पर बाह्यार्थ का ग्राहक प्रत्यक्ष भ्रान्त सिद्ध होगा, हाँ अर्थाभाव असिद्ध होता तब तो बाह्य अर्थग्राहि प्रत्यक्ष भ्रान्त कैसे होता ? तथा प्रत्यक्ष भ्रान्त सिद्ध होगा तभी अर्थाभावानुमान को उस से बाध पहुँचता नहीं अपि तु निर्बाध अपने साध्य अर्थाभाव 15 को सिद्ध करता। यदि कहें कि - अर्थाभावसाधक अनुमान का बाध होने से बाह्यार्थग्राहि प्रत्यक्ष प्रमाण ही नहीं हो सकता – तो यह ठीक नहीं, अनुमान के लिये भी वैसा प्रश्न होगा कि बाह्यार्थसाधक प्रत्यक्ष का बाध होने से अर्थाभावग्राहि अनुमान प्रमाण कैसे हो सकेगा ? (सूचना - यहाँ कौंस में रही हुई पंक्तियाँ अशुद्ध होने से उस का विवेचन करना दुःशक्य है। कुछ भावार्थ ऐसा निकाल सकते हैं कि - बाह्याभावग्राहि अनुमान भ्रान्त होने से बाह्यार्थग्राहि प्रत्यक्ष को अनुमानबाधा नहीं होगी। 20 ऐसा कहेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष होगा - कैसे यह देखिये.... अनवस्था दोष होने से अनुमानग्राह्य बाह्याभाव नहीं हो सकता।)
[ अनुमान से अर्थाभावसिद्धि अशक्य ] और भी प्रश्न यहाँ खडे हैं - अर्थाभावग्राहि अनुमान यदि होगा तो कार्यलिङ्ग से होगा - स्वभावहेत से होगा या अनुपलब्धिजनित होगा ? पहला या दूसरा विकल्प तो आप (बौद्ध) को भी 25 स्वीकार्य नहीं है क्योंकि आप तो कार्य-स्वभाव हेतु को विधिसाधक ही मानते हैं जैसे कि आप के धर्मकीर्ति विद्वान ने कहा है (न्या०बि० २-१९ में) कि 'यहाँ पहले दो (हेतु) वस्तु (= भाव) के साधक हैं'। तीसरा पक्ष :- अनुपलब्धिवाला भी निष्फल है क्योंकि (अर्थ की) अनुपलब्धि ही असिद्ध है. स्पष्टतया ज्ञान में बाह्यार्थ भासित होता है। स्मरण में रहे कि यत्तत अनुपलब्धि अभावसाधक नहीं होती किन्तु उपलब्धियोग्य वस्तु की अनुपलब्धि अभावसाधक होती है। वह भी सर्वदेश-सर्वकाल 30 में अभाव की स्थापना कर नहीं सकती किन्तु किसी नियतदेश - नियतकाल में ही अभाव सिद्ध .. अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ एकः प्रतिषेधहेतुः ।।१९।। न्यायबिन्दुप्र० इति पूर्वमुद्रिते।
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