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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ सर्वत्र सर्वदेति न ततोऽपि सर्वथा अभावसिद्धिः ।
अथापि स्यात् नार्थाभावद्वारेण विज्ञानमात्रं साध्यते अपि त्वर्थ-संविदोस्सहोपलम्भनियमादभेदः चन्द्रद्वयादिवदिति वि(धि)मुखेनैव साध्यते इति न पूर्वोक्तो दोषः। - असदेतत्, अभेदस्य प्रत्यक्षेण बाधनात् । यतः पुरःस्थस्फुटवपुर्नीलादि प्रतिभाति हृदि रूपग्राहकाकारं बिभ्राणा संविच्चकास्तीति कुतो ध्वान्त (कुतोऽर्थ-तत्)संविदोरभेद: साधयितुं शक्य: शब्देऽश्रावण(त्व)वत् पक्षस्य प्रत्यक्षेण निराकृतेः ? न वाऽभेदेऽपि प्रत्यक्षं भेदाधिगन्त्रुपलब्धमिन्दुद्वयादिवत् इति न तेव(?न) बाधा । यतो द्विचन्द्रादौ बाधादर्शनात् तस्य भ्रान्तत्वमस्तु स्तम्भादौ त्वर्थक्रियाकारिरूपोपलब्धि(ब्धेः) तदभावास्त(?त्स)त्यता ततो नील-बुद्ध्योर्भेद एव। असिद्धश्चायं हेतु: मीमांसकमतेन विज्ञानव्यतिरेकेण बाह्यार्थस्यैवोपलम्भात् प्रत्यक्षार्थव्यतिरिक्तस्य तदा
कर सकती है। अतः विज्ञानवादी जो सर्व देश-काल को ले कर अर्थ के अभाव की अनुमान (अनुपलब्धि) 10 से सिद्धि करना चाहते हैं वह शक्य नहीं है। सारांश, भावबाधक कोई प्रमाण न होने से अर्थाभावसिद्धि के द्वारा विज्ञानमात्र की सिद्धि की आशा व्यर्थ है।
[ सहोपलम्भहेतुक अभेदानुमान में बाध-असिद्धि दोष ] वि०वादी :- हम सिर्फ अर्थाभाव के आधार पर ही विज्ञानमात्र की सिद्धि नहीं चाहते, (यहाँ प्रत्यक्ष से अभाव ग्रह हो न हो इस चर्चा का अन्त नहीं है) किन्तु दो चन्द्र की उपलब्धि की तरह 15 सहोपलम्भ के आधार पर (यानी अर्थ और संवेदन का पृथक् पृथक् उपलम्भ नहीं होता, जब भी
अर्थोपलम्भ होता है तब विज्ञान के साथ ही होता है - सहोपलम्भनियमादभेदो नील-तद्धियः) नील अर्थ और उस के संवेदन का विधिमुख से यानी हकारात्मकरूप से (न कि अभावरूप या निषेधरूप से) सिद्धि करते हैं - इस में तो कोई दोष नहीं है।
___अर्थवादी :- यह गलत है। उन दोनों का अभेद तो प्रत्यक्ष से बाधित है, कैसे सिद्ध करेंगे ? 20 सुनिये - बाह्य देश में अपने संमुख ही नीलादि पिण्ड का स्फुट भासन होता है, दूसरी ओर
रूपादिग्राहकाकार को धारण करता हुआ संवेदन अपने भीतर में भासित होता है - तो यहाँ अर्थ और उस के विज्ञान में अभेद की सिद्धि कैसे कर सकते है ? जैसे शब्द में अश्रावणत्वसिद्धि का उपक्रम करने जाय तो शब्द रूप पक्ष श्रावण (प्रत्यक्ष) होने के कारण प्रत्यक्षतः बाधित हो जाता है वैसा यहाँ समझ लो।
विज्ञानवादी :- आप प्रत्यक्षबाध की बात करते हैं तो जान लो जैसे चन्द्र का स्व में अभेद के रहते हुए भी प्रत्यक्ष से चन्द्रयुगल में (द्वित्व यानी) भेद की उपलब्धि होती है तो ऐसे, प्रत्यक्ष से हमारे सहोपलम्भहेतुक अभेदानुमान में बाधा कैसे होगी ?
अर्थवादी :- ऐसा कथन योग्य नहीं। कारण, मान लिया कि चन्द्रयुगल के बारे में बाध-उपलम्भ के कारण वह प्रत्यक्ष भ्रान्त होगा, किन्तु स्तम्भादि प्रत्यक्ष में बाध तो है नहीं, उपरांत वहाँ भारवहनादि 30 अर्थक्रियाकारी रूप भी उपलब्ध होता है अतः वह सत्य ही है, उस से सिद्ध होता है कि नील और
नीलविज्ञान का भेद है। दूसरा दोष है हेतु-असिद्धि, मीमांसक के मत में विज्ञान प्रत्यक्षगोचर नहीं है ज्ञाततालिंगक अनुमान-गोचर है। अतः उस के सामने विज्ञान के विना भी केवल नीलादि बाह्यार्थ
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