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खण्ड - ३, गाथा - ५
अथ द्विचन्द्रादावभेदे सहोपलम्भदर्शनादन्यत्रापि ततोऽभेदः । नैतत् सारम् दृष्टान्तमात्रात् साध्यसिद्धेरयोगात् अन्यथा हेतुवैयर्थ्यप्रसक्तेः । न चाऽभेदव्याप्तः कश्चिद्धेतुरस्ति । न च दृष्टान्तोऽपि सिद्ध: चन्द्रद्वयादेरपि ज्ञानाद् भिन्नत्वेन प्रतिपादितत्वात् (१००-२) ।
अनैकान्तिकश्चायं हेतु:, सर्वज्ञज्ञानस्य पृथग्जनचित्तस्य सहोपलम्भेऽपि भेदाभ्युपगमात् । न च सर्वज्ञज्ञानसंवेदनं विनापि पृथग्जनचित्तसंवेदनसम्भवात् न तत्र सहोपलम्भनियमः इति वाच्यम्, यतः परदृशं 5 विनापि तद्ग्राह्यं नीलादि पृथग् नरान्तराण्युपलभन्त इति तद्दर्शनात् तदपि भिन्नमस्तु । अपि च, सह शिष्येण पण्डितः' इति 'सह' शब्दो भेद एवोपलब्धः ततो हेतुर्विरुद्धो भवेत् सहभावविवक्षायां भेदेन व्याप्तत्वात्। अथ 'सह' शब्दो नैव सहभावार्थवृत्तिः किन्तु एकार्थवृत्तिः, ततः 'एकोपलम्भात्' इति हेतुर्विवक्षितः, न चासौ विरुद्धः । असदेतत्- एकोपलम्भस्याऽसिद्धत्वात्, तदसिद्धत्वं च नीलतद्धियोर्भेदोपलम्भात्। तथाहि - बहिर्गतत्वेन देशकालादिभिन्नतया ग्राह्यतया नीलं भिन्नमाभाति -अन्तर्गतत्वेन 10 सुखादिरूपतया ग्राहकरूपापन्ना बुद्धिराभातीति न तयोरेकोपलम्भः सिद्धः ।
है क्योंकि केवलदृष्टान्त से साध्यसिद्धि युक्त नहीं है, क्योंकि तब तो सर्वत्र हेतु निरर्थक सिद्ध होगा । अभेद के साथ व्याप्ति धारण करनेवाला कोई हेतु यहाँ नहीं है । तथा दृष्टान्त भी असिद्ध है क्योंकि पहले यह कह दिया है ( १००-१६) कि चन्द्रयुगलआदि भी ज्ञानभिन्न है ।
[ सहोपलम्भ हेतु में अनैकान्तिक या विरुद्ध या असिद्धि दोष ]
अभेदानुमान के लिये प्रयुक्त सहोपलम्भ हेतु साध्यद्रोही भी है, सर्वज्ञ को अपना ज्ञान और सामान्यजन का चित्त दोनों का एकसाथ ही उपलम्भ होने का नियम है फिर भी उन दोनों में भेद स्वीकृत है । ऐसा नहीं कहना कि 'किसी किसी को सर्वज्ञज्ञानसंवेदन नहीं है किन्तु सामान्यजन के चित्त का संवेदन होता है यहाँ सहोपलम्भनियम हेतु नहीं है अभेद भी नहीं है तो हेतु असिद्ध कैसे ?" क्योंकि अन्य व्यक्ति के दर्शन या संवेदन के ग्रहण के बिना भी उस के दर्शन का ग्राह्यविषय नीलादि 20 अन्य सामान्यजनों को उपलब्ध होता है यह दिखता है अतः वहाँ भी ( बुद्धि और नील में ) भेद रहने दो। और एक बात, 'सह' शब्द का अर्थ सोचिये 'शिष्य के साथ पंडित घुमता है' यहाँ पंडित और शिष्य के भेद के रहते ही 'सह' शब्दप्रयोग किया जाता है (अभेद हो तब नहीं), अतः अभेद से विरुद्ध भेद का साधक होने से सहोपलम्भ हेतु विरुद्ध ठहरा, क्योंकि 'सह' शब्दार्थ जो सहभाव है उस की तो भेद के साथ व्याप्ति है । यदि कहें कि 'सह' शब्द सहभाव अर्थ में वाच्यत्व 25 सम्बन्ध से वृत्ति नहीं है, किन्तु 'एक अर्थ' में वृत्ति है । अब सहोपलम्भ शब्द से एकोपलम्भ तो अभिन्न ही होता है ।' तो यह गलत है । प्रस्तुत में नील-नीलबुद्धि स्थल में एकोपलम्भ (यद्यपि विरुद्ध या अनैकान्तिक हो न हो) असिद्ध है। असिद्धि इस तरह :- नील और नीलबुद्धि में तो भेद का ही उपलम्भ है ( एकोपलम्भ नहीं ।) स्पष्टता :- नील पदार्थ बाह्यरूप से, देश - कालादि भेद से भिन्न एवं ग्राह्यरूप से भासित होता है, उस से विपरीत :- नीलबुद्धि आन्तरिकस्वरूप से, सुखादिआत्मक 30 तथा ग्राहकरूप से विदित होती है । अतः उन दोनों का एकोपलम्भ सिद्ध नहीं |
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