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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
न च स्वसामग्रीवशात् क्षपाकरयुगलं संविदि भासमानं ज्ञानस्वरूपमेव, बहिर्ग्राह्याकारतया प्रतिभासमानस्य इन्दुद्वयस्यान्तर्ग्राहकाकारतयाऽप्रतिभासनात्, ज्ञानरूपत्वाऽयोगात्, तद्रूपत्वे वा ग्राहकाकारतया प्रतिभासमानज्ञानस्यापि तथाऽप्रतिभासमानस्यार्थरूपताप्रसङ्गः । तत्र ( न ) बहिर्ग्राह्याकारतया प्रतिभासमानस्येन्दुद्वयादेर्विज्ञप्तिरूपता । परिशुद्धविशददृगवसेयस्य तु स्तम्भादेः सुतरां ज्ञानरूपतानुपपत्तिः । तन्न अध्यक्ष 5 बहिरर्थावभासि तदभावं गमयति । न चाध्यक्षमभावग्राहि, तस्य तुच्छतया तद्विषयत्वाऽयोगात् । न च वस्तुत्वादसदंशः प्रत्यक्षग्राह्यः इन्द्रियसम्बन्धाभावेन तस्यापि प्रत्यक्षत्वाऽयोगात्, तदसम्बन्धस्तु योग्यताऽभावात् इन्द्रियस्य। उक्तं च (श्लो० वा० अभाव० श्लो०१८) 'न तावदिन्द्रियेणैषा नास्तीत्युत्पाद्यते मतिः । भावांशेनैव संयोगे योग्यत्वादिन्द्रियस्य हि ।।” तन्नोभयरूपोऽप्यर्थाभावोऽध्यक्षवेद्यः ।
नाप्यनुमानं बाह्याभावमावेदयति, प्रत्यक्षाभावे तस्याऽयोगात् । न च प्रत्यक्षविरोधेऽनुमानस्य प्रामाण्यं 10 सम्भवति 'प्रत्यक्षनिराकृतो न पक्ष:' [ ] इति वचनात् । न च बाह्यार्थावेदकस्याध्यक्षस्य भ्रान्तत्वाद् न [ चन्द्रयुगल सिर्फ ज्ञानाकार होने का कथन गलत ]
अपनी तिमिरादिसामग्री के बल से संवेदन में भासमान चन्द्रयुगल मात्र ज्ञानस्वरूप नहीं है । चन्द्रयुगल वहाँ बाह्यविषयाकार रूप से भासित होता है, अन्तरंगविषयाकाररूप से भासित होता नहीं, अतः वह ज्ञानस्वरूप नहीं है । अन्तरंगरूप से न भासने पर भी यदि उस को ज्ञानस्वरूप मानेंगे 15 तो अन्तरंगस्वरूप भासनेवाले ग्राहकाकार से ही अनुभवगोचर ज्ञान बहिरंगस्वरूप न भासने पर भी बाह्यार्थाकार मानने का अनिष्ट होगा। सारांश, जब बहिरंग विषयाकार स्वरूप से भासनेवाला चन्द्रयुगल भी विज्ञानरूप नहीं है, तो विशुद्ध स्पष्ट दृष्टि में भासनेवाले स्तम्भादि में तो सुतरां विज्ञानरूपता का व्यवच्छेद हो जाता है ।
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पहले जो कहा था ( ९६- ३) अभाव प्रत्यक्षगोचर नहीं होता वह अब निश्चित हो जाता 20 है कि प्रत्यक्ष बाह्यार्थावभास होता है किन्तु उसके अभाव को विषय नहीं कर सकता। बात भी सच है कि प्रत्यक्ष अभावग्राहक नहीं होता क्योंकि अभाव तुच्छ ( निःसार) होने से प्रत्यक्षविषयता यानी प्रत्यक्ष की पहुँच वहाँ नहीं होती। यदि कहें कि 'अभाव तुच्छ नहीं है, वस्तु का ही एक नकारात्मक अंश है अतः प्रत्यक्ष से ग्राह्य होगा' तो यह शक्य नहीं क्योंकि नकारांश के साथ इन्द्रियसम्पर्क शक्य न होने से चाहे उसे वस्तु अंश माना जाय फिर भी उस का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इन्द्रियसम्पर्क 25 न होने का कारण इन्द्रिय की असदंश के साथ सम्बन्ध लगाने की योग्यता ( = शक्ति) ही नहीं है। श्लोकवार्त्तिक (अभाव० श्लो०१८ ) में कहा है - 'नहीं है' ऐसी यह बुद्धि इन्द्रिय से तो उत्पन्न नहीं होती । कारण, भावांश के साथ संयोग करने में ही इन्द्रिय की योग्यता होती है । निष्कर्ष, चाहे असत् हो या वस्तु-अंश हो किसी भी प्रकार का अर्थाभाव प्रत्यक्षगोचर नहीं है यह सिद्ध होता है । [ अनुमान से भी बाह्याभावसिद्धि दु:शक्य ]
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प्रत्यक्ष तरह अनुमान भी बाह्याभाव को आवेदित नहीं कर सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष के विरह में अनुमान भी योजन कर नहीं सकता। जिस विषय में (अर्थाभाव के प्रति ) प्रत्यक्ष का विरोध हो उस विषय में अनुमान प्रमाण सम्भव नहीं, क्योंकि 'अनुमान के लिये पक्ष चाहिये और वह भी प्रत्यक्ष
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