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खण्ड-३, गाथा-५
न वा(चा)कृतको प्रागभावः तदविनाशो वा सम्भवतीति प्रतिपादितम् । ततोऽसमर्थो विनाशहेतुरिति स्थितम् व्यर्थश्च।
तथाहि- Aयदि स्वभावतो नश्वरो भावः न किंचिद् विनाशहेतुभिः तत्स्वभावतयैव तस्य स्वयं नाशत:- न हि स्वयं पतति पातप्रयासः फलवान् । Bअथाऽनश्वरस्तदा तत्स्वभावस्यान्यथाकर्तुमशक्यत्वाद् व्यर्थो नाशहेतुः । न च व(च)लरूपतायां तदुपयोगः, यतो नाऽस्माभिः कार्ये भावानां व्यापारः प्रतिक्षिप्यते 5 किन्त्वचलरूपतैव । ततो भावानामुद्भूता[??भावस्य भावपूर्वस्तु पूर्वको प्रच्युत एवेति तथोपलब्ध्यादिप्रसङ्ग:??] यश्च विनाशहेतोरस्थिरस्वभावो घटादेर्भवति कथं स स(?त)स्य स्वभावः तस्मिन्निष्पन्न भिन्नहेतुकः ? यतो न तत्स्वभावो युक्तः। न च स्वहेतुभिरेव नियमितस्वभावोऽयं कालान्तरस्थायी पदार्थानां हेतुभिर्जनित इत्युत्पादानन्तरं न विनष्टः, स तस्मिन्नेव स्वभावे व्यवस्थितः कथमन्तेऽपि नश्येत् ? अनुपलब्ध है, किन्तु जब आप नाश सहेतुक ही मानने पर तुले हैं तो ऐसा निश्चय किस तरह 10 होगा कि कालान्तर में अकृतक का नाशहेतु कोई न आने से नाश नहीं ही होगा ? यह भी कैसे कह सकते हैं कि प्रागभाव निर्हेतुक ही है ? पहले हमने कहा ही है कि प्रागभाव न तो अकृतक है न तो अविनाशी है। निष्कर्ष :- नाश स्वयं ही होता है, नाश के लिये अन्य कोई समर्थ हेतु नहीं होता, अगर होगा तो भी निरर्थक, क्योंकि उस के विना भी नाश तो होनहार ही है। [ नश्वर/अनश्वर स्वभाव विकल्पों में अनुपपत्तियाँ ]
__15 नाश स्वयंभू है वह समझ लो - भाव का स्वभाव Aनश्वर है या Bअनश्वर - दो विकल्प हैं। पहला :- Aयदि भाव स्वभाव नश्वर है तो विनाशहेतु बेकार है क्योंकि स्वभावतः यानी स्वतः ही नाश होने वाला है। जो अपने आप गिरनेवाला है (बारीश आदि), उस को गिरने का प्रयत्न सफल नहीं कहा जाता। (स्वयं पतनशील ताडवृक्ष के ऊपर कौआ बैठ जाने के बाद उस का पतन हो जाय तब कौए को दोष देना बेकार है)। Bदूसरा :- यदि भाव अनश्वरस्वभावी है तब हेतुप्रयोग 20 से उस के परिवर्तन के लिये यानी नाश के लिये कुछ भी करना अशक्य होने से नाशहेतु की कल्पना व्यर्थ है। यदि कहें कि - ‘भाव में चलरूपता (नश्वरता) के आपादन के लिये नाशहेतु उपयोगी बनेगा' - तो यहाँ हम इतना ही कहना चाहते हैं कि किसी भी कार्य को लक्ष में रख कर कोई कछ भी प्रयोग (= व्यापार) कर सकता है जिस का हम इनकार नहीं करते, किन्तु हम भावों की स्वतः चलरूपता का स्वीकार करते हैं और अचलरूपता का निषेध करते आये हैं, करते रहेंगे। (यहाँ 25 ततो भावा... प्रसङ्ग.. इतना पाठ अशुद्ध होने से उस का विवरण नहीं किया) ऐसा कहें कि - 'घटादि भाव विनाशहेतुसापेक्षअस्थिरस्वभावयुक्त होते हैं' - तो प्रश्न है कि जो अन्य सापेक्ष है उस को ‘स्वभाव' कैसे कहेंगे ? भाव तो जब उत्पन्न होगा तब अपने पूर्ण स्वभाव से उत्पन्न होगा, फिर उस में स्वभिन्न हेतु सापेक्ष नया स्वभाव कैसे प्रवेश करेगा ? अरे ! वह उस का स्वभाव हो ही नहीं सकता। ऐसा नहीं हो सकता कि – ‘अपने हेतुओं से ही जो नियतप्रकार के स्वभाववाला है 30 ऐसे भाव अपने हेतुओं से कालान्तर स्थायी ही उत्पन्न होता है - अतः त्वरित नष्ट नहीं होता' - यदि ऐसा भाव अपने कालान्तरस्थायित्व स्वभाव में ही अवस्थित रहेगा तो ऐसी क्षण ही कभी
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