________________
८५
खण्ड-३, गाथा-५ ध्वंसः, तस्याग्न्यभिघातादिहेतुभेदेऽपि तु(स्व)च्छरूपतया सर्वत्र विकल्पज्ञानेऽवभासनात् । न हि ‘अभावोऽभावा' इति तुच्छरूपतामपहायापरं तस्य किञ्चिद् रूपमीक्ष्यते। हेतुमत्त्वे च तदवस्थस्तस्य विनाशप्रसङ्गः । अथ विनाशस्य विनाशहेतुः न दृष्टः - इति नासो विनश्यति। तदुक्तम् - [ ]
घटादिषु यथा (दृष्टाः) हेतवो ध्वंसकारिणः । नैवं नाशस्य सो हेतुस्तस्य सञ्जायते कथम् ?।। इति ।
नन्वेवं बुद्ध्यादीनामप्यविनाशिताप्रसक्तिः विनाशहेत्वदर्शनात्। अथाऽदृष्टोऽपि ध्वंसहेतु: कल्प्यते 5 अहेतुकविनाशानुपपत्तेः अन्यत्र तस्य हेतुमत्त्वदर्शनात्, बुद्ध्यादीनां चोत्तरकालं स्वरूपाऽसंवेदनात् अवस्थितरूपत्वे च तेषां तदयोगात् इति - असदेतत्, स्वसंविदितत्वानभ्युपगमे बुद्ध्यादीनामस्य प्रलापमात्रत्वात् ।
तथाहि- यथा घटादयो भावा न सर्वदैव ज्ञानविषयतामुपगच्छन्ति तथा बुद्ध्यादयोऽपि ज्ञानान्तरसंवेद्याः सन्तोऽपि नावश्यमनुभवपथमुपयास्यन्तीति कुतस्तेषामनुपलम्भादभावनिश्चयः ? न चैकदोपलब्धानामन्यथा(?दा)त्यन्तानुपलम्भादसत्त्वनिश्चयो युक्तः । यत: उपलम्भः प्रमेयकार्यम्, न च कार्यनिवृत्तिः कारणाभावं गमयति 10 पटादि में भेद की उपलब्धि होती है। ध्वंस यदि सिर्फ प्रच्युतिमात्रस्वरूप है तो भावान्तर के साथ उस का कोई सम्बन्ध ही नहीं है, उस में तो वैसा (वैविध्य) है ही नहीं। ध्वंस तो उसके जनक अग्निअभिघात (संयोगविशेष) आदि विभिन्न हेतु से जन्य होने पर भी सभी विकल्पों में एकमात्र तुच्छस्वरूप से ही अवभासित होता है। ‘अभाव... अभाव' इस प्रकार तुच्छस्वरूपता को छोड कर अन्य किसी स्वरूप से अभाव का दर्शन नहीं होता। तथा, जो सहेतुक है वह विनाशी होता है इस व्याप्ति के 15 जोर पर सहेतुक विनाश के ध्वंस की विपदा तो तदवस्थ ही है।
[ नाश के नाश की अथवा बुद्धि आदि अविनाश की आपत्ति ] यदि कहें – 'व्याप्ति होने पर भी जब विनाश के विनाश का हेतु ही अस्तित्व से बाहर है तो विनाश के विनाश का अनिष्ट नहीं रहता। - किसी विद्वान् ने कहा है - घटादि भावों के जैसे विनाशक हेतु हैं वैसे नाश का वह कोई हेतु नहीं है। फिर उस का नाश होगा कैसे ?' - 20 तो सहेतुकवादी को ऐसी आपत्ति होगी कि (के अतीन्द्रिय होने के कारण) बुद्धि आदि का भी कोई विनाशहेतु दृष्टिगोचर न होने से बुद्धि आदि अविनाशी हो जायेंगे। यदि – “दृष्टिपथ में न आने पर भी उन के नाशहेतु की कल्पना करनी पडेगी क्योंकि नाश विना हेतु नहीं होता। अन्य स्थलों में भाव का नाश एवं उस की सहेतुकता सर्वमान्य है - बुद्धि आदि का स्वरूप स्वउत्तरकाल में संविदित भी नहीं होता, यदि उत्तरकाल में वें उपस्थित होते तो उन का असंवेदन संगत नहीं होगा 25 - आखिर बुद्धि आदि का नाश तो मानना ही पडेगा।" - ऐसा कहें तो यह गलत है क्योंकि यह सब वचन प्रलापमात्र रह जाता है यदि बुद्धि आदि को स्वसंविदित न माना जाय।
[ बुद्धि को स्वसंविदित न मानने पर अविनाशप्रसंग ] प्रलाप क्यों - यह देखिये, घटादि पदार्थ जैसे सर्वदा ज्ञानविषय नहीं बने रहते वैसे बुद्धि आदि पदार्थ (स्वसंविदित यदि नहीं मानेंगे तो) ज्ञानान्तरवेद्य होते हुए भी अवश्य अनुभवविषय बनते रहे 30 - ऐसा कोई नियम नहीं है, अत एव उन के अनुपलम्भ से उन के अभाव का निर्णय आप नहीं कर सकेंगे। एक समय जो उपलब्ध हो चुके हैं - अन्य काल में उन के अनुपलम्भमात्र से उन के
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org